अजीब सा इश्क....!
अजीब सा इश्क....!
कुछ अजीब सा
इश्क था हमारा
जो हो कर भी हमारा नही हुआ.....!
बेशक आग दिलों में
दोनो तरफ थी बराबर
पर ना तुम कुछ बोले
ना लव मेरे खुले
बस देखते एक दूजे को और
मुस्करा देते....!
कुछ अलग भी थे हम
पर फिर भी साथ थे
तुम खुले आसमा सी चहकती रहती
और मैं बुद्धू सा
खामोश बस तुम्हें देखता रहता...!
तुम बात बात पर
हंसती, खिलखिलाती
और सच कहूं
तुम्हारी मुस्कान पे मैं फिदा था...!
तुम्हारी हर मुस्कान
बेहद नर्म
और दिल को सुकूं सा देती
और मैं
ना तो मुस्कराहट होंठों पे रखता
ना कुछ बातें
तुम से कर पाता
शायद हिचक थी कोई...!
तुम्हें भी मेरा साथ पसंद था
मेरी खामोशी पसंद थी
तुम्हें मुझे छेड़ने में भी बहुत मजा आता था
कोई न कोई मौका
तुम अक्सर ढूंढ ही लेती...!
कभी मेरी उंगलियों को
अपनी उंगलियों में फसाती
कभी मेरे आंखों में
एक टक सा देखती और हंस देती...!
याद है तुम्हें
जब पहली बार हमारी नजरें
एक दूजे से टकराई थी
तुम चहक रही थी
और मैं घबरा कर
इधर उधर देखने लगा था
पर सच कहूं
मुझे भी कुछ नया सा
कुछ अलग सा महसूस हुआ था...!
तुम्हारा कभी कभार रूठना
और मेरा परेशान होकर तुम्हें मनाना
सच कहूं डरता भी था
कहीं खो ना दूं तुम्हें...!!!
पर तुम
इस इश्क के मायने जानती थी
हमारे दरम्यान हुए
हर जज़्बात को पहचानती थी
देर सबेर तुम खुद ही मान भी जाती.....!
हमारे इश्क की
बेशक ऊंचाइयां कम थी
पर इसकी जड़ें
बहुत गहरी अंतहीन थी
इसमें ना कोई शोर शराबा था
ना कोई दिखावा
पर इसकी गूंज हर दिशा में गूंजती
दो दिलों में
झंकार पैदा करती.......!
मुझे आज भी याद है
तुम्हारा वो शायराना अंदाज
जब तुम हर बात पर मेरे
खालिश शायरी में जवाब देती
और मैं बस
उनके अर्थ तलाशता रहता.......!
तुम लिखती भी बेहद उम्दा थी
गहरे गहरे अर्थ
दिल को छूने वाले
कम शब्दों में
बहुत कुछ कह जाती.....!
तुम्हारी आंखें
अक्सर मुझसे
एक सवाल करती थी
इस रिश्ते को
नाम देना चाहती थी
और मैं बस
निरुत्तर सा
खामोश खड़ा रहा....!
सच कुछ अजीब सा
इश्क था हमारा
नदी के दो पाटों सा
जो नदी के
साथ साथ चलते हैं
पर मिलते कभी नहीं.......!

