ऐसी पावन कविता हो
ऐसी पावन कविता हो
मीठी सी मुस्कान तुम्हारी, जैसे कोई मिसरी हो ।
आंखों के सागर में जैसे कोई नदिया ठहरी हो ।
अधरों की उलझन यों जैसे, चाहत भूली बिसरी हो ।
सूरत घोर अँधेरे में भी, जैसे बीच दुपहरी हो ।
बातें ऐसी जैसे कोई, धर्म ग्रंथ की बानी हो ।
करुणा, प्रेम, समर्पण जैसे, गाथा बहुत पुरानी हो ।
चंचलता में निश्छल दर्शन, सम्मोहन में केशव सी ।
और सादगी में तुम बिल्कुल, स्वर्ग लोक के वैभव सी ।
कितना वर्णन करूँ तुम्हारा, तुम कबीर का दर्शन हो ।
भौतिकता में भी मीरा का, दैविक प्रेम प्रवर्तन हो ।
अतिशयोक्ति भी मौलिकता में, रूप तुम्हारा लगता है ।
शून्य लोक में भी जीवन का, एक सहारा लगता है ।
सार रूप में सकल सृष्टि हित, जीवनदायी सविता हो ।
जिसे स्वयं ईश्वर ने गाया, ऐसी पावन कविता हो ।।

