ऐ ज़िऩदगी
ऐ ज़िऩदगी
ऐ ज़मीं पैर के छालों पर, मरहम रख दे,
थक कर लेटा हूँ, इरादों को इबादत कर दे ।
ये जहाँ मेरा है, एहसास से बाबस्ता हूँ,
मेरे भी नाम को, महफ़िल में ज़िंदा कर दे ।
आज जो घड़ी मुझ पर, हँस कर गुज़र जाये,
कल वह हर शेय, मेरे पास गिरवी रख दे ।
कौन लेगा परिंदों से, उड़ने का हिसाब,
तू मेरा क़द, आसमान से ऊँचा कर दे ।
मशरिको मग़रिब तक, हर हाथ में पैमाने हैं,
तू ही कोई एक दीन, मुसल़लत कर दे ।
निगल गयी तू नसले, इऩसानी का ग़रूर,
थोड़ा ठहर कुछ तो, मुअय़यन कर दे ।
जिस दिन आऊँ, तेरी आग़ोश मे ज़मीन,
दौरे नफरत को, मोहब़ब़त कर दे ।
जावेद रोता है मेहमान होकर, दुनिया में,
कुछ तो मेहमांनवाज़ी का, शरफ़ रख दे ।