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Vigyan Prakash

Tragedy

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Vigyan Prakash

Tragedy

अधिकार

अधिकार

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धूप भरी दोपहरी में,

छाँव तलाशती,

बुझी हुई आँखें।

थके पैर,

कमजोर हाथों को सहारा देते है,

जिनमे अपनी जिन्दगी को थामे,

एक औरत, 

जो अपने उम्र से ज्यादा बूढ़ी है,

इस बंजर ज़मीन पर,

कहीं उपजाऊ मिट्टी तलाशती है।


सुखे होंठ,

पानी से भरी आँखें,

एक बेमेल अन्तर्विरोध पैदा करते है।

दिनों से भूखी वो माँ,

बच्चे के रोने पर ना जाने कैसे,

उसकी ममता छलक आती है।

रुखे, फटे हाथों से,

अपने बच्चे के कोमल गालों को सहलाती,

वो उसे पेड़ के नीचे छोड़,

ईंट उठाने के अपने काम में लग जाती है।


आराम हराम है।

गर्मी की रातें भी,

उसे सोने नहीं देती,

रात भर अपने बच्चे को,

पंखा झलने के बाद,

दिन भर ईंट उठाती,

वो औरत,

हार चुकी है जिन्दगी से,

जीती है तो बस उस बच्चे के लिये।


मगर वो ग़रीब है,

उसे जीने का अधिकार नहीं।


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