अभिमंत्रित करती है
अभिमंत्रित करती है
मौन की भाषा मुझे अभिमंत्रित करती है
जब भी तुम मेरे पास होते हो
तुम्हारे होने का एहसास
मन को वीणा के तारों सा
झंकृत तरंगित करता है
सूरज सिन्दूरी किरणों को समेटता
क्षितिज से जा मिलता है
निकट होने की लालसा, चित में जगाता
प्रेम का ये अटूट बंधन
तुम्हारे लिए चाहत का एक पल
जिसमें हर लम्हे ने श्रृंगार किया है
जैसे राम ने स्वयं निर्मित फूलों के आभूषण से
सीता को तैयार किया है
तुम्हारी यादों को सहेजा समेटा
जीने का मकसद मिला
जब भी तन्हा होती हूँ
तेरी यादों के सहेजे पन्नों को
कभी पलट कर देख लेती हूँ
और निकट होती हूँ देव अनुभूति से
तब मैं बिल्कुल तन्हा नहीं होती
मेरे आस-पास तुम होते हो।