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Archana Saxena

Tragedy

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Archana Saxena

Tragedy

अभिमानी मानव

अभिमानी मानव

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पंछी की भाँति विचरण करता था जो मानव

आह! आज अनुभव करता कितना बंधन

अपनों से भी मिलने से अब डर लगता है

कैसे वो करेगा और किसी का अभिनन्दन

सोचा था कुछ ही दिनों की तो होगी ये बात

किसको पता था इतनी लंबी है ये रात

ईश्वर का नहीं प्रकोप ये तो तेरे ही करम 

समझे खुद को सर्वेसर्वा पाला है भरम

इतनी सुन्दर सृष्टि के साथ तू खेला है

सृष्टि ने युगों युगों से तुझको झेला है

कभी तो टूटेगा ही इसके धैर्य का बांध

अब भी नहीं सँभला तो तय है जीवन की साँझ

मानव तूने प्रकृति को जो आजमाया है

उसने तुझको घर में ही बन्दी बनाया है

हर ओर निराशा के बादल हैं छाए घने

क्या कोई तारणहार जो ये आवाज़ सुने 

क्या कोई जो मानव को ये सिखला पाए

मत बन सर्वेसर्वा जो ये बतला पाए

अब भी कुछ हैं धरती पर जो भोले निश्छल

ये धरती टिकी उन्हीं पर अब भी अडिग अटल

जो नहीं समझा तू कौन तुझे समझाएगा

कभी तो घुन गेहूं के साथ पिस जायेगा।।

     


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