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Ramashankar Roy 'शंकर केहरी'

Abstract Inspirational

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Ramashankar Roy 'शंकर केहरी'

Abstract Inspirational

अब नींद में चलने लगा हूँ

अब नींद में चलने लगा हूँ

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मुश्किल है अब सोना 

अंधों की बस्ती में

उलझन सी रहती है

दिन क्या, रात क्या

सच क्या, सपना क्या

अनुभूत क्या, श्रुत क्या


अब नींद में चलने लगा हूँ

अब अंधों सा रहने लगा हूँ!!


रोकना मत

टोकना मत

बुलाना मत

जगाना मत


अब नींद में चलने लगा हूँ 

अब अंधों सा रहने लगा हूँ!!


शतरंज का मोहरा बना हूँ

मालूम नहीं किस खाने खड़ा हूँ 

किस रंग का ,

किस रूप का

किस हाथ का

किस काम का

मोहरा बन गया हूँ


अब नींद में चलने लगा हूँ 

अब अंधों सा रहने लगा हूँ!!


बंदर की तरह उछलता भी हूँ

भेंड़ की तरह चलता भी हूँ

बकरी सा मेमियाता भी हूँ

बिल्ली सा डर जाता भी हूँ

आगे पीछे दुम हिलाता भी हूँ


अब नींद 

;में चलने लगा हूँ 

अब अंधों सा रहने लगा हूँ!!


पहले चिंघाड़ता भी था

पहले हिनहिनाता भी था

पहले गर्दन ऊँची करता भी था

पहले अपनी बात कहता भी था

सीधे तिरछे चलता भी था

मैं कभी आप जैसा भी था


अब नींद में चलने लगा हूँ 

अब अंधों सा रहने लगा हूँ


तंद्रा टूटे जब सियासी पत्थर से

नशा उतरे जब मजहबी जाम का

सही अक्श दिखे वक्त के आईने मे

मजार से चादर उतार लेना तुम

सीढ़ियों पर अर्पित करना प्रसाद


अब नींद में चलने लगा हूँ 

अब अंधों सा रहने लगा हूँ!!


जब सुबह की दिशा बदल जाए

निशा की परिभाषा बदल जाए

मुर्गे के बिना विहान हो जाए

जगा देना शायद एतवार हो जाए


अब नींद में चलने लगा हूँ 

अब अंधों सा रहने लगा हूँ !


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