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Shakuntla Agarwal

Abstract Inspirational

4.2  

Shakuntla Agarwal

Abstract Inspirational

"अब क्या श्रृंगार लिखूँ"

"अब क्या श्रृंगार लिखूँ"

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कोरोना ने पँख फैलाये,

हर घर में कोहराम मचा है,

इंसान - इंसान से बच रहा है,

लाशों का यहाँ ढ़ेर लगा है,

ऐसे में कहाँ श्रृंगार सुहाये,

अब क्या श्रृंगार लिखूँ |   


बच्चें भूखें बिलख रहें हैं,

नँगे पाँव मजदूर चले हैं,

पानी पी - पी भूख की अगन मिटाये,

उनका दर्द सहा नहीं जाये,

अब क्या श्रृंगार लिखूँ |


अजगर काल बनके खड़ा है,

सरहद पर डटा हुआ है,

बीस हमारें सैनिक मारे,

सैनिकों की वीरांगनाओं ने,

अपने साजो - श्रृंगार उतारें,

अब क्या श्रृंगार लिखूँ |


लाशों से ज़मीं पटी हुई है,

लाशों की होली जल रही है,

अंतिम दर्शन भी घरवाले कर नहीं पाये,

रो - रो अपनी सुध - बुध गँवाये,

अब क्या श्रृंगार लिखूँ |


मौत ताँडव कर रही है,

नहीं किसी से डर रही है,

भूकंप, बाढ़, कोरोना से,

दुनिया ग्रसित पड़ी है,

अब क्या श्रृंगार लिखूँ |


दिल मेरा भी जल रहा है,

कुछ करने को मचल रहा है,

सोचती हूँ सरहद पे जाऊँ,

दुश्मनों को मार गिराऊँ,

वीरांगनाओं को धीर बँधाऊँ,

अब "शकुन" क्या श्रृंगार लिखूँ |      



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