"अब क्या श्रृंगार लिखूँ"
"अब क्या श्रृंगार लिखूँ"
कोरोना ने पँख फैलाये,
हर घर में कोहराम मचा है,
इंसान - इंसान से बच रहा है,
लाशों का यहाँ ढ़ेर लगा है,
ऐसे में कहाँ श्रृंगार सुहाये,
अब क्या श्रृंगार लिखूँ |
बच्चें भूखें बिलख रहें हैं,
नँगे पाँव मजदूर चले हैं,
पानी पी - पी भूख की अगन मिटाये,
उनका दर्द सहा नहीं जाये,
अब क्या श्रृंगार लिखूँ |
अजगर काल बनके खड़ा है,
सरहद पर डटा हुआ है,
बीस हमारें सैनिक मारे,
सैनिकों की वीरांगनाओं ने,
अपने साजो - श्रृंगार उतारें,
अब क्या श्रृंगार लिखूँ |
लाशों से ज़मीं पटी हुई है,
लाशों की होली जल रही है,
अंतिम दर्शन भी घरवाले कर नहीं पाये,
रो - रो अपनी सुध - बुध गँवाये,
अब क्या श्रृंगार लिखूँ |
मौत ताँडव कर रही है,
नहीं किसी से डर रही है,
भूकंप, बाढ़, कोरोना से,
दुनिया ग्रसित पड़ी है,
अब क्या श्रृंगार लिखूँ |
दिल मेरा भी जल रहा है,
कुछ करने को मचल रहा है,
सोचती हूँ सरहद पे जाऊँ,
दुश्मनों को मार गिराऊँ,
वीरांगनाओं को धीर बँधाऊँ,
अब "शकुन" क्या श्रृंगार लिखूँ |