अब और नही
अब और नही
मैं क्या हूँ,
प्रेम,समर्पण,त्याग की प्रतिमा,
हाँ,
प्रतिमा ही तो समझा है सबने,
जिस रूप में चाहा,
वही देखा और समझा है,
मैं भी उसी जाल में
उलझती चली गयी,
त्याग,समर्पण,सेवा के नाम पर
गलती चली गयी,
न जाना खुद को,
न जाना खुशियो को,
बस एक वृक्ष बन,
फल देती चली गयी,
जैसे चाहा, उसने बनाया,
मैं भी नासमझ,
कुशल कारीगर समझ,
खुद को सौंपती चली गयी,
हर पल चोट खा,
छलनी होती चली गयी,
पर क्या मुझ नारी का ,
ये ही जीवन था,
प्रश्न मन मे लिए,
मुस्कान अधरों पे लिए,
बस घुटती चली गयी,
न कभी तू ,
मेरे प्रेम को समझा,
न ही मेरे नारीत्व को,
बस भोग्या, कामिनी
ही मुझे समझा,
एक वस्तु बना,
एक खिलौना बना,
तू छलिया बना रहा,
मुझे छलता रहा,
बस छलता रहा,
पर बस अब और नही,
अब तेरी राहों पर नही,
खुद की राहों पर चलूंगी,
एक नई वसुंधरा रचूंगी,
जहाँ प्रेम बस प्रेम ही होगा,
वासना का रूप नही,
नारी महाकाली भी होगी,
हर अन्याय जो हरेगी,
दुर्जनो का शमन करेगी,
इस क्रांति की मशाल संग,
हर नारी अब जागेगी,
न अस्मिता अब औरलुटेगी,
बेटियां तब सुरक्षित होंगी,
जब हर नारी स्वयं जागेगी,
दुष्टता भी खुद भागेगी।।