आत्मा की पीड़ा
आत्मा की पीड़ा
जब मेरी आत्मा हुई रूबरू मुझसे,
कर बैठी एक सवाल...
गुनाह क्या है मेरा ?
जो किया है तुमने जीना मेरा दुश्वार!
क्यों बात -बात पर दम भरती हो.. आत्मा अजर है अमर है !
कितना छलनी करती हो मुझे,
भूल जाती हो तब मेरी पीड़ा को
देती हो दुहाईयाँ हजारों बार !
अजर -अमर होने से बेहतर ,
मैं तुमसा शरीर हो जाऊँ!
और मुक्त हो जाऊँ ,
अजर -अमर के,
इस बंधन से !
थक जाती हूँ मैं भी,
इतने शरीरों से गुजर!
पर नहीं समझता कोई मेरा दर्द,
काश! कि तुम सुन समझ सको मुझे!
हतप्रभ ! अवाक सी मैं
सुन रही थी वो आवाज!
जो बयाँ कर रही थी अपनी पीड़ा ,
शब्द न थे मेरे पास !
बोलने लगी वो ....
हर एक तन का कष्ट ,
चोटिल कर देता हैै मुझे!
छोड उसे फिर नये शरीर में प्रविष्ट होना !
सोचा मैने भी..
चोट तन को हो या मन को,
घायल तो आत्मा ही होती है हर बार!
निशब्द हो गई में,
न दे पाई कोई जवाब
आप हम सब प्राणी कभी न कभी...
इस दौर से गुजरते हैं. .
हो सकता है कोई जवाब हो
आप सबके पास!
मुझे भी मिल जाये..
मेरे सवालों के जवाब ..
और दे पाऊँ मैं भी ...
आत्मा के सवालों के जवाब!