उलझन मन की
उलझन मन की
सवाल गणित के हो या जिंदगी के
अक्सर परेशान करते हैं
उससे भी ज्यादा परेशान तब करते हैं
जब सवाल न हों या तब
जब जवाब हम जानते हैं
ख़ामोशी
खामोश रहना भी एक कला हैं
जहाँ हम खुद के ज्यादा करीब होते हैं
कभी जब डराती हैं खुद अपनी ख़ामोशी
क्यों सहम जाती हूँ अक्सर मैं खुद से
मर्ज़
जाने कब से
कितना कुछ उबल रहा हैं
मन की भट्टी मैं
काढ़ा सा हो गया हैं जमा
हर मर्ज़ का इलाज खुद
मन के पास हैं <
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आखिर क्यों
सब कुछ जानकर भी
बर्दाश्त करना या खुद से
अंजान रहना होता हैं
ये भी कोई कला हैं या
स्त्री होने का गुनाह हैं
स्त्री विमर्श
क्यों अक्सर पुरुष ही
बात करते हैं
क्या स्त्री की अपनी कोई औकात नहीं
की जिसे जनम से लेकर हर कला मैं
पारंगत करती हैं वो
क्यों खुद अपने हर फैसले के लिए
तकती हैं वो पुरुष का मुँह
जिसे ऊँगली पकड़ना सिखाती हैं
क्यों वो ही उसके वजूद पर
ऊँगली उठता हैं।