आस्तीन के सांप
आस्तीन के सांप
जिंदगी है हम कहाँ मिले आप से,
गुज़र गयी है इक उम्र चुपचाप से,
उफ़ ये उम्मीदें, हसरतें, ख्वाहिशें,
जल राख़ हुई हैं ज़माने के ताप से,
सुलझा-सुलझाया किस्सा हो तुम,
मगर हम उलझे रहे अपने आप से,
यहाँ है वज़ूद ही कहाँ हमारा तुम्हारा,
मसले मगर खड़े हैं अनाप शनाप से,
हौसलों पे भी बला का ऐतबार रहा,
भला ड़रते कहाँ थे किसी के बाप से,
बदी की मिक़दार से मापते हैं मुझे,
मिलेगा इक कफ़न नेकी के नाप से,
‘दक्ष’ खूँ जो तेज़ाब हुआ रगों में तेरी,
हाल है ये पाले आस्तीन के सांप से,
