आशा और निराशा
आशा और निराशा
ख्वाहिशों में कैद मेरे जज़्बात
आसमाँ ढूंढते हैं हर सुबह, हर रात।
रात भर करवटें लेते हैं ख़्वाब,
और सुबह जमीन पर बिखरे हुए नज़र आते हैं।
कोशिश करती हूँ एक-एक करके उन्हें चुनने की,
वो हाथों में से रेत सा फिसल जाते हैं।
जितना भागती हूँ उन्हें पकड़ने के लिए,
वो उतना ही दूर चले जाते हैं।
जिंदगी मुझे उम्मीद ना थी,
तू मुझे इस तरह सतायेगी।
उम्मीदों का चारा डालेगी मेरे आगे,
और मेरे इस मायाजाल में फँसने पर
निराशा हाथ में थमायेगी।
खैर मैंने भी उम्मीदों के बिना
जीना सीख लिया है।
जब आशा ही नहीं जिंदगी से कोई तो
निराशा कैसे मुझे तड़पायेगी ?