Shishpal Chiniya

Abstract Tragedy

4  

Shishpal Chiniya

Abstract Tragedy

किसान

किसान

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1          


अनगिनत पेड़ों के पीछे डुबता हुआ वो रवि ।

दिखाता है कुदरत की एक अनोखी-सी छवि ।


सो गया था ये जहाँ, जब सो गया वो जहाँ।

सावन कें कुछ छिंटों से फिर जगा है सारा जहाँ।


हरा-भरा मौसम देख ,लगा कहने रवि आसंमा से।

रहकर तेरे साये में, न कभी आबाद हूँ तेरी शमां से।


बयां लफ्ज कुछ किये अपने इस सुनहरी धरा ने।

फिर जवानी झलकी है आज जकड़ रखा था जरा ने।


मंडली पेड़ों की आपस में कुछ कर रही है खुसुर-फुसुर।

सुनेंगे एक बार फिर तोता -मैना की वो ताल - सुर।


 मेड़ पर बैठा एक किसान बोला अपनी बेगम से।

 सूखे पडे़ थे अरमान फिर जगे है सरगम से।


लाखों की आशाओं पर खरा उतरा आज मेरा रब है।

दुआ है रखे सलामत मुझे तु ही कुछ- सब है।


2        


 लगा है ऐसा चाव खेतों में जाने का

अम्बर का है सु-वाव रेतों मे ले जाने का।


कोंपलें खिली है हरी - भरी सुनहरी- सी 

हर परिन्दे के घोसले पर बैठी है परी-सी


इसे देख मन ही मन हुआ मैं हर्षित।

देखकर खुशी मैं खुद की रह गया चकित।


मेरे खेत के फैले सामराज्य अब हुआ बे-गम 

झोपड़ी के महल से इंतजार के बाद आती वो बेगम।


कर रहे है भोजन पेड़ की छाँव में बेठकर

जैसे आसंमा ने छोड़ा धरा को ऐंठकर 


ख्यालों की जंग में खुद से घिर गया था।

वो वक्त था जब मैदान पर गिर गया था।


जब लगी थी आग मेरे अरमानों बस्ती में।

बुझा गया वो सावन बरस कर मेरी कश्ती में।


इश्क मुबारक है मुझे मेरी धरा का।

हर दाना कोहिनूर है मेरी धरा का


3        


लहलहाती हरियाली देख रहा हूँ निर्निमेष।

है फसल भिन्न -भिन्न पर एक ही है भेष ।


सुर्य की किरणें रोशनी को,

जगाने जो चली है।

भेड़ - बकरियोँ की भीड़ से,

भरी हर गाँव की गली है।

न करे इंतजार कोई बादशाह,

हर बेगम की रोटी जली है।

कभी रोटी है हाथ में तो 

कभी सेतु की डली है।


कहीं लगा है फाल पौधों पर,

तो लगी है कहीं फली।

रब का नीरज उमड़ रहा है,

टूट न जाये कहीं नाजुक-सी कली।

है थोड़ा डर कहीं तूफान की चढ़ न जाये बली।

न रहे कैसी भी कमीं इनमें,

बढ़ती रहे जैसे ये पली है।


देख कर मन ही मन प्रफुल्लित,

मेरी खामोशी टली है।

अब की बार अच्छी रब की,

फसल होने को चली है।

आये न कोई आफत ये ही,

मेरी दुआ रब को भली है।


सोचते - सोचते आखिर ये,

शाम होने को चली है।

रवि की रोशनी आज फिर 

ऐसे ही ढली है।

रहे खुश यूं ही ये किसान,

जिनसे ये धरा फली है।

हरियाली में ही रहे इनकी,

जो तम्मनाओं की कली है।


4          


आज चला हूँ फिर मैं , सवेरे के पहले पहर में ।

सुख न जाये कोई हरा पौधा , रवि के कहर में।

चिलचिलाती धूप मेरे रब की छाँव है उखाड़कर 

हर पौधा इकट्ठा कर रहा हूँ, लावणी की लहर में ।


हर डाली को छूकर डरता हूँ , कहीं फली गिर न जाये।

मुठ्ठी - मुठ्ठी समेटकर खुश हूँ ,कहीं नजर लग न जाये।

मैं किसान हूँ साहेब दुनिया की हर बात से डरता हूँ ,

कि कहीं मेरी मेहनत पर ये बहता पानी फिर न जाये।


मेरी मेहनत की आज लगी है , अरावली - सी पहाड़ी ।

मजदूरी तो बहुत की है, कितनी नसीब की है दिहाड़ी ।

जितनी भी है लेकर खुश हूँ मैं कि , कितना खुशनसीब हूँ

जिसके खेत की खुद आकर रब ने खोली किवाड़ी।


मेरी मेहनत आज बीच बाजार , निलाम होने चली है ।

क्या होंगे निलाम के बोल, दिल में थोड़ी खलबली है।

पसीने को तोलकर तराजु मे खुश हूँ कि कम्बख्त 

कम से कम चंद पैसों की हाथ में , नोटों की पल्ली है।


खुश है हर कोई घर में, आज नया हर सामान आया है।

बेटा- बेटी खुश हुए जो, मनपसंद का परिधान आया है।

बेगम भी झूम उठी है आज, घर में नया सम्मान आया है।

यूं ही खडे़ रहें हर कदम साथ मेरा परिवार,

मैं खुश हूँ कि मेरे घर मेरे भाग्य का सभंलता ये जो पैगाम आया है।





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