पंडित हूँ, पर खंडित हूँ ! (कविता २ भागों में )
पंडित हूँ, पर खंडित हूँ ! (कविता २ भागों में )
पंडित हूँ, पर खंडित हूँ !
(कविता २ भागों में )
पहला भाग (पार्ट न 1)
बहुत याद आती हो तुम हर दम
ए वादिये कश्मीर की फिज़ाओ
न जाने क्यों पूछना चाहती हूँ आज
जैसी तब थी तुम, क्या वैसी अब भी हो?
ज़रा यह भी बताओ ए फिज़ाओ
क्या बिन मेरे तुम वाकई खुश हो ?
वह खूनी मंज़र याद आता है
जब तुमसे जुदा होना पड़ा था मुझे
आलम बदल गया था पल भर में
क्या उसका एहसास है तुझे ?
मैं जिस्म से पत्थर हो गई थी
न जाने किस दुनिया में खो गई थी
बरस रही थी गोलियां, निकल रही थी रैलियां
झूम रहा था खूब वह, शातिर अपनी फतह पर
लाशें बिछाई थी उसने हर सड़क हर नुक्कड़ पर
बेपर्दा अस्मत तैर रही थी झेलम की सतह पर
पर सुन! मैंने अस्मत चुन ली थी उसने नफरत
मैंने चुन लिया था देश, उसने बारूद व् दौलत
थी मैं भी एक तितली उस बगिया की
उन लाखों में उन हज़ारों में
था क्या कसूर मेरा जो बिक गया मेरा
सब कुछ उन खूनी बाज़ारों में
चूर - चूर हो गए थे सारे सपने
दुश्मन निकले वे जो लगते थे अपने
हो गए थे अब वतन से बेवतन
अनजाने रास्ते पर निकल पड़े थे
न था कोई ठिया न ही ठिकाना
शातिर हमें मारने पर अड़े हुए थे
जैसे - तैसे जान बचाकर भागे थे हम
खुली आँखों से कितनी रातें जागे थे हम
घर छोड़ कर दरबदर यूं भटके हम
थे बेज़ार बिना सहारे हम जाते किधर
बना बिछौना वह मैदान कंकरों से भरा
और रातें ग़ुज़री ओड के अंधेरों की चादर
वह घर, वह आँगन याद आता था हर दम
दिल था बोझिल,पथराई आंखें,थके हुए थे कदम
कितने साल महीने यूं गुज़र गए
यह खाली मन अपना ढोते हुए
कितने मंज़र हैं गुज़रे आँखों से
गुज़र गए पल हज़ारों लाखों रोते हुए
आँखें मेरी अब कुछ धुंधला गई है
यादें भी कुछ कुछ खोई खोई हैं
तेरे झरने अब भी कल -कल करते होंगे
ठंडी फ़िज़ाएं बदन को सहलाती होंगी
वह रंग बिरंगे फूलों से भरे तेरे दामन
फ़िज़ा में चमक रुत बसंती बरसाती होगी
था कितना सुहाना वह सारा मंज़र
याद आते ही दिल अब होता है बंजर
दूध से भी सफ़ेद वह सारा आलम
गुदगुदी बर्फ की चादरों का बिछना,कुदरती
ठंडी हवाओं का बदन से टकराना
छतों से बर्फ का पिघलना और जम जाना, जादुई
याद आते ही होश खो देती हूँ
खून के आंसूं बस अब पीती हूँ
खींच लेती थी वह सफ़ेद चादरें मुझे अपनी और
झट से मेरा दरवाज़े से वह बाहर जाना
उन ठंडी हवाओं संग कंपकपाना
हाथों को रगड़ना और चेहरे को मलना
तुम बताओ मैं कैसे भूल सकती हूँ
याद आते ही बस यूं कलपती रहती हूँ
बचपन की पार करते ही देहलीज़, मैं इठलाती
न जाने कहाँ से नफरत की वह आंधी चल पड़ी
बचाए जान व् अस्मत ऐसी थी अफरा- तफरी
हर दीवार मेरी ज़िन्दगी की थी हिल पड़ी
कब से चाल उस शातिर ने चली होगी
मेरे विलाप व् चीखें तूने भी तो सुनी होगी ...........
पंडित हूँ पर खंडित हूँ (भाग - २)
न पूछ बिछड़कर तुझस
े क्या क्या झेला है
तपिश थी गर्मी की उस पर थी खली जेब
रिसती रही आत्मा अनजाने लोगों के बीच
गफलत में रही हरदम, था चारों और फरेब
पर कुछ रूहानी हमसफ़र भी मिले
अपनेपन से जिसने मेरे गाव् सिले
संस्कारों ने हमसे कभी भीख मंगवाई नहीं
काम हर तरह के किये, जो भी मिलते रहे
खुद से खुद की लड़ाई लड़ी, बस अड़े रहे
कच्चे पक्के धागों से चादर ज़िंदगी की सिलते रहे
जो ज़िंदा रखे थी वह एक आस थी
बस इंतज़ार था वतन की वापिसी की
साल गुज़रते गए "एक दिन वापिस जाउंगी "
ज़िंदा रखे रहा यह ख्याल हर दम मुझे
दिए जलाये रातों में, पसीना दिन का साथी बना
जब जब दो पल खाली मिले, याद करती थी तुझे
सुन! दर्द अन्दरूनी कभी गया नहीं
दिन गुज़ारे, ज़िन्दगी को जिया नहीं
तूने तालीम बख्शी थी, पैसा खूब कमाया
बच्चों को पढ़ाया,ब्याहाया, अपना फ़र्ज़ निभाया
पर ए मेरी सरज़मीं, वह चीखें कभी भूली नहीं
उन मस्जिदों की गूंझों ने मुझे खूब सताया
इस मुकाम पर भी सिहर उठती हूँ मैं
कहना चाहूँ भी तो किस्से कहूँ मैं
गुज़र गए तीस साल, बदल गई कई हकूमतें
भाषण मैंने खूब सुने उन दोगले नेताओं के
वतन वापसी करवाएंगे, हक हमें दिलवाएंगे
पर आज भी मेरे साथी कई, पड़े हुए हैं वीरानों में
हमने ज़ख़्म दिखाए, उन्हें दर्द कभी दिखा नहीं
मैं पंडित हूँ इस देश का, मैं कभी बिका नहीं
अपने ही देश में, रिफ़ूजी मिला है नाम मुझे
निभाई मैंने देश से वफ़ा पर देश ने मुझे दिया क्या
३७० हटाकर उसने, मुँह मेरा बंद करना चाहा
अरे भाई कुर्सी का सब चक्कर है, यह तो साफ़ दिखा
मैंने कभी खून बहाया नहीं, जात से पंडित हूँ
हूँ शांति का प्रतीक, और कर्म से मैं पठित हूँ
सात बार छीन ली हमसे वह हमारी मिटटी
उन सुल्तानों ने, ज़ालिम हुकुमरानों ने
सदियों से हमने कितने ज़ुल्म सहे
और धर्म तक बदलवाया उन शाही मकारों ने
हम ज़ुल्म सहते रहे, और भागते रहे
ए भारत की मिटटी, तेरा क़र्ज़ हम चुकाते रहे
क्या कोई कमी थी हममें जो खून हमने बहाया नहीं
या सामाजिक, संस्कारी यह पंडित जाती थी
हर दम जिसने किया है पालन मर्यादा का
खड़ा रहा जब भी विपदा आड़े आ जाती थी
अपने ही देश में क्यों रिफूजी आज मैं कहलाती हूँ
देश का तिरंगा औरों की ही भांति मैं भी फहराती हूँ
मैं पंडित हूँ, खंडित हूँ, मेरा दर्द तो समझो
मुझे देखो ज़रा गौर से, घर से बेघर हो चुकी हूँ
यूं तो बहादुरी से आयी हूँ लड़ती हालातों से
पर अब लगता है शायद मैं पहचान खो रही हूँ
पर मत भूलो-२, मैं कल्हण की उतरदाई हूँ
कश्मीर गर हैं कंगन, मैं उसकी कलाई हूँ
अधिकारों से लड़ना मैंने अब सीखा है
पर भगावत करना, नहीं मेरा तरीका है
मैं शातिप्रिय हूँ, शांति से समझाती हूँ
बिन मेरे रंग, इस देश का रंग फीका है
मेरी आवाज़ ए देश के हुकुमरानो सुन लो
एक ही धागे से, सही मानो में, इस देश को बन लो
मेरी पुरखों की मिटटी मेरा अधिकार है
मेरा हक़ लौटना आपका सामाजिक सरोकार है।