आम वृक्ष
आम वृक्ष
घर का दरवाजा खोलती हूँ
एक पार्क में मेरे पाँव पड़ते हैं
पार्क में
एक ऊँचा, खूब घना और सुडौल
एक देसी आम वृक्ष
हर मौसम में हरा दिखता है
उसे देख मेरी सुबह होती है
उसे शुभ रात्रि बोलकर सोती हूँ
इस धुंधले समय में
खिड़की खोलते
सिर्फ वही दिखता है साफ-साफ
पढ़ने की मेज पर
थककर जब पीली पड़ने लगती हूँ
उसे निहारती हूँ
वह हरी मुस्कान से
जोड़ देता है किताब में एक हरा पन्ना
उस पर कब बौर आये
कब नन्हे फल लगे
कब कब कूकी कोयल
वह अपने वसंत का
पूरा हिसाब मेरी किताबों में रखता है
उसकी मालकिन उसके हर फल पर एकाधिकार समझती है
उसे अपने बाड़े में खींचती
उसका एक भी फल मुझे हाथों से छूने नहीं देती
वह यंत्रवत नोचती बटोरती है उसके कच्चे, पके फल
टूटकर गिर जाते हैं हरे -भरे पत्ते भी
पतझड़ आ जाता है पार्क में
और मेरे मन में
अभी मैं उसके पास हूँ
यह ब्रह्म मुहूर्त है
मैं कोलाहल नहीं सुन रही
पवित्र हवा से उसके रसीले फल टपक रहे हैं
मैं मात्र गोद-भर बटोर रही हूँ।
