STORYMIRROR

Basudeo Agarwal

Classics

4  

Basudeo Agarwal

Classics

आल्हा छंद "अग्रदूत अग्रवाल"

आल्हा छंद "अग्रदूत अग्रवाल"

2 mins
427

(आल्हा छंद / वीर छंद / मात्रिक सवैया)

अग्रोहा की नींव रखे थे, अग्रसेन नृपराज महान।

धन वैभव से पूर्ण नगर ये, माता लक्ष्मी का वरदान।।

आपस के भाईचारे पे, अग्रोहा की थी बुनियाद।

एक रुपया एक ईंट के, सिद्धांतों पर ये आबाद।।


ऊँच नीच का भेद नहीं था, वासी सभी यहाँ संपन्न।

दूध दही की बहती नदियाँ, प्राप्य सभी को धन अरु अन्न।।

पूर्ण अहिंसा पर जो आश्रित, वणिक-वृत्ति को कर स्वीकार।

सवा लक्ष जो श्रेष्ठ यहाँ के, नाम कमाये कर व्यापार।।


कालांतर में अग्रसेन के, वंशज 'अग्रवाल' कहलाय।

सकल विश्व में लगे फैलने, माता लक्ष्मी सदा सहाय।।

गौत्र अठारह इनके शाश्वत, रिश्ते नातों के आधार।

मर्यादा में रह ये पालें, धर्म कर्म के सब व्यवहार।।


आशु बुद्धि के स्वामी हैं ये, निपुण वाकपटु चतुर सुजान।

मंदिर गोशाला बनवाते, संस्थाओं में देते दान।।

माँग-पूर्ति की खाई पाटे, मिल जुल करते कारोबार।

जो भी इनके द्वारे आता, पाता यथा योग्य सत्कार।।


सदियों से लक्ष्मी माता का, मिला हुआ पावन वरदान। 

अग्रवंश के सुनो सपूतों, तुम्हें न ये दे दे अभिमान।।

धन-लोलुपता बढ़े न इतनी, स्वार्थ में तुम हो कर क्रूर।

'ईंट रुपये' की कर बैठो, रीत सनातन चकनाचूर।।


'अग्र' भाइयों से तुम नाता, देखो लेना कभी न तोड़।

अपने काम सदा आते हैं, गैर साथ जब जायें छोड़।।

उत्सव की शोभा अपनों से, उनसे ही हो हल्का शोक।

अपने करते नेक कामना, जीवन में छाता आलोक।।


सगे बिरादर बांधव से सब, रखें हृदय से पूर्ण लगाव।

जैसे भाव रखेंगे उनमें, वैसे उनसे पाएँ भाव।।

अपनों की कुछ हो न उपेक्षा, धन दौलत में हो कर चूर। 

नाम दाम सब धरे ही रहते, अपने जब हो जाते दूर।।


बूढ़े कहते आये हरदम, रुपयों की नहीं हो खनकार।

वैभव का तो अंध प्रदर्शन, अहंकार का करे प्रसार।।

अग्रसेन जी के युग से ही, अपनी यही सनातन रीत।

भाव दया के सब पर राखें, जीव मात्र से ही हो प्रीत।।


वैभव में कुछ अंधे होकर, भूल गये सच्ची ये राह।

जीवन का बस एक ध्येय रख, मिल जाये कैसे भी वाह।।

अंधी दौड़ दिखावे की कुछ, इस समृद्ध-कुल में है आज।

वंश-प्रवर्तक के मन में भी, लख के आती होगी लाज।।


छोड़ें उत्सव, खुशी, ब्याह को, अरु उछाव के सारे गीत।

बिना दिखावे के नहीं निभती, धर्म कर्म तक की भी रीत।।

'बासुदेव' विक्षुब्ध देख कर, 'अग्र' वंश की अंधी चाल।

अब समाज आगे आ रोके, निर्णय कर इसको तत्काल।।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics