आज़ादी और बेटियां
आज़ादी और बेटियां
था भार बेड़ियों का बदन में
आतताई दे रहे थे यातना
फिर स्वराज की खातिर हुई
बहुत सी कुर्बानियां
भार उतरा बदन का
पर मन का भारीपन वैसा ही रहा
आज बीते साल सतहत्तर
किंतु फिर भी न सुरक्षित बेटियां
हो हाट चौराहे
या कार्यालय की बंद खिड़कियां
हो मंदिर शिक्षा का या चिकित्सा का
हर कही मिल जाता नर रूप में भेड़िया
इस समाज रूपी जंगल में
हो रात या दिन का उजाला
हर गली हर मोड़ पर बेटियां बनती
नरपिशाचों का निशाना
इससे बेहतर थी वो जंजीरें
कम से कम दरिंदे बाहरी थे।
