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Shakti Kumar

Tragedy

5.0  

Shakti Kumar

Tragedy

आज का पुरुषार्थ

आज का पुरुषार्थ

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पल्लू क्या खिसका

उसके आँचल से

साहब की नियत ही 

खिसक गयी


देखकर उस अबला के 

वक्षस्थल को

बहने लगी अरमानो की नदियाँ

बचपन में जिस वक्ष ने 

किया तुझे तृप्त


अब उसी की चाह में

हवस की राह में

चल पडा है 

जिस्म की भूख में

इज्जत की लूट में

चल पडा है


चुंबन की तृष्णा में

दरिंदगी की वृष्णा में

चल पडा है

जिस योनि से निकल देखा 

ये जग सारा

आज उसी की चेष्टा में 

फिर रहा है मारा मारा

प्यास से मर रहा है


तत्पर है करने को

अवैध यौन क्रिया

इंसानियत को शर्मसार करने

कि है यह प्रक्रिया

वाह रे भाई 


हैरत में है वो खुद रचनाकार

पछताता होगा वो भी 

बनाकर लिंग जैसा अंग


बेहतर होता गर बनाता 

प्रजनन का कोई और साधन

तेरी यह दरिंदगी ना देखता

इंसानियत को लज्जित होते ना देखता

और सबसे बड़ी बात 

इक और आसिफा को मरते ना देखता।


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