वेश्या
वेश्या
मजबूरियां होती हैं साहब बहुत सी,
यूं ही नहीं बेचती वो जिस्म बाजार में।
यूं ही मन नहीं करता अपना जिस्म नौचाने का,
एक अनजान आदमी के साथ सो जाने का।
खुश करने के लिए क्या क्या वह करती है,
पल पल भीतर ही भीतर वह मरती है।
हर कोई जिस्म से खेला उसे वेश्या माना
पर किसी ने भी उसकी मजबूरियों को न जाना।
वह अणगणित आलिंगन चुंबन के दौर से गुजरती है,
ऐसा कर इंसानियत लज्जित हो बुझती है।
पैसा देकर तुम अपनी हवस मिटाते हो,
ऐसा कर तुम अपनी मर्दानगी पर इतराते हो।
दे पैसा पहले तुम उसके बदन को निहारते हो,
फिर रंडी वेश्या ने जाने क्या-क्या पुकारते हो।
क्या इसी को तुम अपनी मर्दानगी कहते हो,
अगर हां तो ऐसी मर्दानगी तुम औच्छौ को मुबारक साहब।
हाय अबला तुम्हारी यही कहानी,
आंचल में है दूध आंखों में है पानी।
