रजोधर्म
रजोधर्म


नहीं रोती वह उन दिनों में रजोधर्म की पीड़ा से,
वह रोती है तो समाज की दकियानूसी क्रीडा़ से,
जो समझते हैं उसे उन दिनों में अपवित्र,
टूटती चली जाती है तब वह भीतर ही भीतर।
जब चाहिए होती है उसे सबसे ज्यादा देखभाल,
लोग फैलाते हैं दकियानूसी विचारों का जाल।
गंदगी है मंदिर में नहीं जानी चाहिए,
इसकी छाया रसोई में भी नहीं आनी चाहिए;
अचानक खड़ी हो निकलती है जब आंखों में लज्जा की सृष्टि लिए,
तब संकीर्ण मानसिकता देखती है उसे अपनी घटिया दृष्टि लिए।
हाथों को बांधे टांगों को समेट जब वह चलती है,
देखते हैं ऐसे मानो यह उसकी ही कोई गलती है,
खून से लथपथ डायपर देख तब उसका मजाक उड़ाते हो,
तुम भी डायपर भिगो भिगो कर बड़े हुए यह क्यों भूल जाते हो।
अपवित्र नहीं यह रज बात है इतनी सी सरल,
संसार के सृजन का द्योतक है यह पवित्र तरल,
गंदा बोल कर इस रज को, ना करो झूठा प्रचार,
गंदा है कुछ तो वह है मस्तिष्क के विचार।
अगली बार ओछी हरकत से पहले यह ध्यान रखना,
तुम भी इस तरल से उपजी फसल हो यह ख्याल करना,
गर दिख जाए ऐसी हालात में कोई नारी अगली बार
वात्सल्य का का भाग दिखाना इज्जत कि उसे बूंद देना,
कुछ मत बोलना चुपचाप अपनी आंखों को मूंद लेना,
वह थोड़ा सहज और अच्छा महसूस करेगी।