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saru pawar

Abstract

4  

saru pawar

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आईना

आईना

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आज आईना कुछ केह रहा था

  बिखरी हुँई मेरी लटों पें हस रहा था

हाँ सफेदी झाँक रही थी कही उनमें भी

 

अब उन्हीं से शायद बुढापा झाँक रहा था

पुछाँ उसने याद हूँ क्या में

जिसने तुझे पेहचान थी दी

जब तु माँ की नकल मुझ में देख करती थी पगली

जवानीं की पेहचान भी तुझको ,

  

मुझमें झाँक कर ही मिली थी

तु तो तब क्या लगति थी सुंदर

परियों सी लगति थी खुबसुरत


और सजति थी राजकुमारीयों सी तू  

कहाँ गई तेरी ओ नजाकत

उलझी हुँई सि लटे है तेरी

नुर कुछ खोया सा है

  और उलझी तु है कहाँ


पगलि यों खोते नही अपने से रिश्ता 

कुछ खयाल अपना भी रख लिया कर

क्या थी और क्या बन गई तू

अपने से ही पूँछलिया कर


हाँ अब वादा कर प्रियें

दिन मे ऐक बार तो तु मुझ में झाँक लिया कर

सजेगी -सवरेगी अपने लिऐ तू

आज ये वादा इस आईने से कर। 


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