आदमी
आदमी
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जिस्म पे ओढ़कर सभ्यता का लिबास,
विचारों से नंगा हो रहा है आदमी।
थे रोपने जहाँ हमदर्दगी के फूल,
बीज नफरतों के बो रहा है आदमी।
मंदिरों में पूजा और मस्जिदों में नमाज,
इन्हीं व्यर्थ चक्करों में खो रहा है आदमी।
टूट गए दिल हो जैसे काँच की तस्वीर,
बोझ एकता के मगर ढो रहा है आदमी।
खुद के लहू से सींचे थे जिस रंगे चमन को,
देखकर उजड़ा हुआ अब रो रहा है आदमी।
निहित स्वार्थ में तोड़ रहा है आदमी
हर जख्म को सीने से लगाया हमने,
फिर भी अलमस्त कर रहा है आदमी।