अ...संभव
अ...संभव
भावनाओं को शब्दों में उतारना आसान नहीं
गुज़र कर किसी के मन की संकरी सी गली से
उसके अंतर्मन की दीवारों को छूना आसान नहीं...
यहीं द्वंद्व चित को चैन ना लेने देता था
जैसे मैं करती हूं वाह वाह किसी का लिखा पढ़कर
क्या लूट पाऊंगी मैं भी वैसी ही वाहवाही अपने उकेरे शब्दों पर...
मेरे लिए तो यह सोचना भी आसान नहीं था
पहली बार जब कलम उठाई शब्दों का कोई मेल ही ना हो पाता था
लिखना कुछ और चाहती थी और लिखा कुछ और जाता था
असंभव में से संभव को अलग करना मुश्किल लगने लगा था
पर निरंतर प्रयास से असंभव में से धीरे धीरे..
..."अ" अलग होने लगा था।
