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Sapna M Goel

Abstract

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Sapna M Goel

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स्वाभिमान

स्वाभिमान

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मलती रही जाने क्यूं आज तक

मैं ये अपेक्षाओं और बेचारगी से बना उबटन अपने अतुलनीय वजूद पर

पर जब सामग्री ही ठीक नहीं थी तो भला कैसे चमकता अस्तित्व मेरा

घिस घिसकर ये लेप जाने कौन सी सुंदरता पाना चाहती थी मैं

खो कर अपना प्रभावशाली आधार क्यों सबकी वाहवाही बटोरना चाहती थी मैं

बीते बरसों पर उबटन मैंने ये हर दिन मला

पर देखा मैंने कि मेरी हस्ती की काया को इसने और फीका किया

ना कद्र मेरे किसी किरदार की रही और तो और मैं जैसी थी वैसी भी ना रही

गहन चिंतन कर जब मैंने खुद से स

वाल किया

पूछा क्यों हुआ ऐसा क्या मैंने अपने वजूद पर गलत श्रृंगार किया

करके खुद से बहस निकला यह परिणाम 

गलत विचारधारा को मैंने सुंदरता का पैमाना माना

आत्मविश्वास आत्मसम्मान और ढेर सारा स्वाभिमान मिला कर 

जो मैंने उबटन बनाया होता तो आज यह दिन ना आया होता

उतार फेंक उस मटमैले उबटन को मैंने फिर ये नया उबटन बनाया 

और अपने पूरे अस्तित्व पर उसे लगाया

देखा आईने में खुद को तो स्वाभिमान से चमक रही थी मेरी काया


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