एक विवाह ऐसा भी
एक विवाह ऐसा भी
बुधनी मेझियाइन ,यही तो नाम था उसका। 'माझी' से स्त्रीलिंग 'मेझियाइइन' ( स्थानीय संथाली भाषा मे) और उससे उच्चारण लाघव या मुख- सुख के चलते बाद में कहीं- कहीं "महाजन" भी बन गया।
जिसकी यह कहानी है वह उस समय केवल पंद्रह वर्ष की एक तेज तर्रार आदिवासी बालिका थी जो मानभूम इलाके की वाशिंदा थी। पूरा बदन ऐसा दिखता था कि ज्यों धूप में खूब सेंका हुआ सा, जैसा कि संथाली रमणियों का अकसर होता है। यूं तो उसका चेहरा मोहरा किसी साधारण आदिवासी महिला के समान ही था लेकिन उसके दो नैनों में कुछ ऐसा विशेष था जो उसे दूसरी लड़कियों से बिलकुल अलग ठहराती थी ।
पत्थर में तराशी गई किसी मूर्ति की मानो वह कोई जीवंत प्रतिमा सी थी। इतनी छोटी उम्र में ही वह कमाल की मेहनती थी। सुबह उठकर जंगल में लकड़ी काटने जाती थी। इसके घर आकर खाना पकाना , पानी भरना सारा काम वह स्वयं अत्यंत फूर्ति से कर लेती थी। फिर पत्थर तोड़ने वह जाती थी, सड़क बनाने के लिए। अकेले ही पाँच पुरुषों की भाँति परिश्रम करने का बूता रखती थी,और इतनी मेहनत के बाद भी उसके चेहरे पर कोई कोई शिकन का भाव न आने पाता था। उसके होठों पर मंद मुस्कान की एक हल्की सी रेखा हमेशा तैरती रहती थी।
जिस समय की बात हम कर रहे हैं वह समय देश को आजाद हुए एक दशक हो चुका । देश नया-नया आजाद हुआ था। प्रथम प्रधानमंत्री, पंडित नेहरू देश की बागडोर को संभाले हुए थे। भारतीय संविधान के लागू हुए भी पाँच - छः वर्ष हो चले थे। देश विज्ञान और प्रौद्योगिक क्षेत्र में अग्रसर होने की कोशिश कर रहा था। शिक्षा के क्षेत्र में नित्य नए शिक्षण संस्थान खोले जा रहे थे। पंडितजी का सपना भारत को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विश्व का सर्वश्रेष्ठ बनाना था। उनके इसी सपने की पूर्ति हेतु 7 जुलाई 1948 को एक विशेष संसदीय सभा (1948 की अधिनियम संख्या 14) के तहत भारत का बहूद्येश्यीय नदी घाटी परियोजना, दामोदर घाटी निगम ( यानि कि डी वी सी) अस्तीत्व में आया। इसका निर्माण अमरीका के टेनीसी वैली परियोजना के माॅडल पर हुआ था।
भारत के जनमानस की धरोहर, डीवीसी का उद्भव, उच्छृंखल तथा नियमित दामोदर नदी को नियंत्रित करने के लिए शताब्दी से अधिक समय तक किए गए प्रयासों के संचयन के रूप में हुआ था। यह नदी तत्कालीन बिहार( अब झारखंड) तथा पश्चिमी बंगाल के राज्यों को आवृत्त करते हुए 15000 वर्ग कि॰मी॰ क्षेत्र तक फैली हुई है।
दामोदर घाटी में बाढ़ के प्रबलता द्वारा निरंतर विध्वंस का सामना उनके तटीय क्षेत्र मे बसे लोगों को करना पड़ता था। दामोदर की दो सहायक नदियाॅ बराकर और कोनार है जो इस क्षेत्र से होकर गुजरती है। बाढ़ की इसी प्रचंडता को रोकने हेतु डीवीसी ने इस क्षेत्र में चार पनबिजली योजनाएँ बनवाई जिनके नाम हैं- मैथन, कोनार, तिलैया और पंचेत।
मैथन पनविजली योजना के तहत बराकर नदी पर बाँध बनाई गई जो इन चारों परियोजनाओं में क्षेत्रफल और उत्पादकता दोनों ही दृष्टियों से सबसे बड़ा है और यह पश्चिम बंगाल के बर्धमान जिले से लेकर झारखंड के धनवाद अंचल तक विस्तृत है। कोनार और तिलैया बाॅध हजारीबाग जिले में स्थित है एवं डीवीसी का अंतिम पनविजली योजना के रूप में पंचेत बाॅध, दामोदर नदी के ऊपर सन् 1959 ईं में अस्तित्व में आई। हमारी कहानी की नायिका बुधनी का संबंध इसी परियोजना से है।
बुधनी इसी डीवीसी की ही एक कर्मचारी थी। एक बाॅध के निर्माण से पहले कितना काम होता है, पत्थर काटना, सड़कें बनाना इत्यादि। निर्माण एवं संरचना के कार्य हेतु आमतौर पर किसी भी परियोजना द्वारा स्थानीय लोगों की बहाली की जाती है। बुधनी भी इन्हीं में से थी।
कहा जाता है कि इस तरह की नदी घाटी परियोजनाओं के चलते सन् 1947 से लेकर तब तक लगभग साढ़े छः करोड़ संथाल कबीले के लोग विस्थापित हो चुके थे। इस हेतु बुधनी के गाॅव के लोगों ने काम करने से मना कर दिया था। वे लोग इस परियोजना के निर्माण के विरोधी थे। सरकार की ओर से दिए गए आश्वासन से जब कोई फर्क न पड़ा , और परियोजना लगभग रद्द होने के कगार पर खड़ी हो गई, तब जनश्रुति है कि इसी पंद्रह वर्षीय संथाली बाला ने सबसे पहले फावड़ा हाथ में उठाया था और बंद पड़े काम को दुबारा चालू करवाया था।
इसका पुरस्कार भी उसे हाथोंहाथ मिला था। 1959 में जब पंचेत बाॅध बनकर तैयार हो गया तो उसके उद्घाटन समारोह में पंडित नेहरू का पंचेत आगमन हुआ था। प्रधानमंत्री का स्वागत हार पहनाकर इसी बुधनी ने किया था। पंडित जी ने इसके प्रत्युत्तर में बुधनी मेझियाइन के द्वारा बटन दबवाकर बाॅध का उद्घाटन संपन्न करवाया था ( दे॰आवरण चित्र )।
इसके बाद पंचेत बांध का लोकार्पण भी बुधनी के द्वारा ही करवाया गया था। इस अवसर पर उसे संथाली भाषा में उपस्थित लोगों को संबोधित करने का गौरव भी प्राप्त हुआ था। विशेष उल्लेखनीय है कि 1959 ई॰ में संथाली राष्ट्रीय भाषाओ की सूचि में शामिल नहीं थी। इस हेतु लोगों को उस समय इस भाषा की ज्यादा जानकारी नहीं थी।
बुधनी को तो प्रधानमंत्री ने उसका योग्य सम्मान दिया था। विश्व के इतिहास में यह घटना एक दृष्टांत स्वरूप था। देश के प्रधानमंत्री की उपस्थिति में एक साधारण सी संथाल बालिका, वह भी जो डीवीसी की एक आम कर्मचारी थी, के हाथों किसी नदी घाटी परियोजना के तहत उक्त बाँध का उद्घाटन होना कोई विशेष घटना जरूर थी।
परंतु बुधनी इतनी खुशकिस्मत न थी। उसे इसका कोई लाभ तो हुआ ही नहीं, उल्टे उसके जीवन मे यह दिन एक घोर अभिशाप लेकर आया।
बुधनी करबोना गाँव की रहनेवाली थी। करबोना संथाली कबीले की रीति के अनुसार फूलों का हार पहनाने के कारण बुधनी को पंडित नेहरू की ब्याहता समझ लिया गया।और चूंकि नेहरू संथाली नहीं थे, इसलिए बुधनी को कबीले से निष्काषित कर दिया गया। मिडिया द्वारा उसे इस समय " नेहरू की संथाली पत्नी" नाम भी दिया गया था।
कबिले से बहिष्कृत होकर कुछ समय के लिए बुधनी यहाॅ- वहाॅ मारी -मारी फिरती रही। इसके पश्चात् पुरुलिया निवासी सुधीर दत्ता के घर में उसे पनाह मिली थी। सुधीर एक कोलियरी में कार्य करते थे। कहते हैं कि इसी सज्जन से बुधनी को एक बेटी भी हुई थी परंतु उस बेटी को भी संथाल समुदाय ने स्वीकार न किया। इसके कुछ समय बाद( 1962)में बुधनी को डीवीसी के स्टाॅफ पद की नौकरी से निकाल दिया गया। कुछ समय के अंतराल में बदकिस्मती से सुधीर की कोलियरी भी बंद हो गई और दोनों पति-पत्नी बेरोजगार गए। उनका गुजारा अब मुश्किल से होने लगा था।
कहते हैं कि किसी दोस्त ने इस समय सुधीर जी को यह सुझाव था कि पत्नी की नौकरी वापस प्राप्त करने हेतु प्रधानमंत्री जी के पास आवेदन भेजी जाए । देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी थे। दोस्त का यह सुझाव सुधीर को पसंद आ गया और सन् 1985 में दिल्ली में प्रधानमंत्री राजीव गांधी को उन्होंने एक पत्र लिखा, जिसमें वे यह लिखना न भूले कि पी एम के नाना जी के कारण ही बुधनी को इतना कष्ट झेलना पड़ा। सर्वविदित है, कि स्वर्गीय राजीव गांधी पंडित नेहरू के नवासे थे। पत्र मिलते ही पी एम ने सहायता करने का वायदा किया।
इसके बाद पी एम ओ के निदेश पर डीवीसी के अधिकारी बुधनी को ढूंढ निकाले और उसकी पुनः बहाली डीवीसी में कर दी गई। परंतु इतना सबकुछ होने के बावजूद भी वह और उसकी बेटी कभी अपने गाॅव करबोना के अंदर न घुस पाई , हमेशा गाॅव के बाहर ही रहीं।
फिर बुधनी का क्या हुआ मिडिया और आम जनता के पास इसकी कोई खास जानकारी नहीं है। वह और उसकी बेटी आजीवन गुमनामी की जिन्दगी जीती रही। सन् 2010 में एक पत्रिका द्वारा बुधनी को मृत घोषित कर दिया गया।
परंतु हाल ही में एक जानीमानी मलायली लेखिका, साराह जोज़ेफ को किसी सूत्र से बुधनी के बारे में पता चला। साराह बुधनी के जीवन पर एक पुस्तक लिखना चाहती थी। इस हेतु उन्होंने डीवीसी, मैथन के जनसंपर्क अधिकारी से संपर्क किया तो वे यह जानकर हैरान हो गई कि बुधनी अभी तक जीवित है।
जनसंपर्क अधिकारी, श्री एम•विजयकुमार ने साराह की मुलाकात बुधनी से करवाई थी। परंतु साराह का कहना है कि बुधनी अपने अतीत को याद नहीं करना चाहती है। और आगे की जिन्दगी जीना चाहती है।
बुधनी के जीवन पर आधारित साराह की पुस्तक मलायली भाषा में सितम्बर में प्रकाशित हो चुकी है। आगामी दिनों में इसके हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित होने की संभावना है।
डीवीसी के जनसंपर्क विभाग के तथ्यों के अनुसार प्रधानमंत्री के तत्कालीन निदेश पर बुधनी को पंचेत के सिविल विभाग में पुनः नौकरी मिल गई थी। आज से तकरीबन 15-16 वर्ष पहले वह अपने कार्य से सेवानिवृत्त हो चुकी हैं और इस समय डीवीसी के सर्विस नियमों के तहत उन्हें नियमित पेनशन भी प्राप्त हो रहा है।
( तथ्य आभार: वीकीपीडिया, द हिन्दू, साराह जोजफ की लेख, डीवीसी के जनसंपर्क अधिकारी, श्री मेपुरथ विजयकुमार एवं इस विभाग के मेरे समस्त भूतपूर्व सहकर्मियों की मैं विशेष रूप से आभारी हूं।)
