कायाकल्प
कायाकल्प
संगीता कितनी बार कहा है तुमसे, जब मेरा ऑफिस जाने का समय हो तब तुम और कोई काम मत किया करो, कहाँ है मेरा बटुआ कब से ढूँढ रहा हूँ ? तुम से एक भी काम ढंग से नहीं होता।
सास भी तुनककर बोली- ओर नहीं तो क्या, माँ ने कुछ सीखाकर ही नहीं भेजा।
संगीता की आँखें भर आई। कहाँ माँ-पापा के घर में तमीज़ का माहौल ओर कहाँ यहाँ बात-बात पर ताने उलाहनें, कसने का रिवाज।
पापा ने कभी इतनी बेरुख़ी ओर चिड़चिड़ेपन से बात नहीं की। और क्या गलती है मेरी माँ की जो उनको किसी गैर के मुँह से सुनना पड़ रहा है, किसने हक़ दिया। भाभी को माँ ने तो कभी कुछ नहीं सुनाया जो नहीं आता था प्यार से सिखाया।
कितनी विपरीत सोच है यहाँ सबकी, खैर ये सब सोचने का मतलब नहीं था। दौड़ी-भागी बेडरूम में गई, गीला तौलिया हटाते ही बटुआ दिखा। विकास खिसीयाना हो गया पर मर्द था न दिखायेगा कैसे खुद की गलती..
पापा के घर आराम से ९ बजे उठने वाली संगीता सुबह ६ बजे उठकर सारा फ़र्ज़ निभाती थी। घर की सफाई, सास ससुर का नाश्ता अलग, छोटे से युग का लंचबॉक्स, देवर और विकास का टिफिन, विकास की हर एक चीज़ बेड पर होती उसके ऑफिस जाने से पहले।
ज़िंदगी की किताब को माँ ने बखूबी पढ़ाया, हर सवाल रट लिए हैं जो सिलेबस में नहीं था वो भी बखूबी सीख गयी फिर क्यूँ मेरे साथ माँ को भी सुनाते हैं।
संगीता घबरायी सी डिक्शनरी हाथ पर लिए ही घूमती, क्या पता कब ससुराल वाले कसौटी ज़ाहिर कर दें।
इनको तो पूरा हक़ है नुक्स निकालने के लिए और भाषा का पेपर भी निकालने का। संगीता की समझ से परे थी ज़िंदगी की किताब। फिर भी तलाशकर निकाल लेती थी हर गुत्थी का हल पर सोचती भी कि महज़ आप ससुराल वाले हो, लड़के वाले हो तो क्या रस्म बन गई की बहू, बहू ही रहेगी, बेटी मानने की कोशिश भी ना की जाये..
क्या है एक लड़की का जीवन, एक ज़मीन से उख़ाड़ कर दूसरी ज़मीन में गाड़ देते हैं। पता नहीं ज़मीन की फ़ितरत अपनाएगी या नहीं। पौधे को सेट होना पड़ता है हर कीमत पर।
संगीता सोचने लगी, कितना बदलना पड़ता है खुद को बेटी से बहू बनने का सफ़र एक बदलाव ही नहीं पूरी की पूरी कायाकल्प है एक अस्तित्व की।
खुद के जन्मजात वजूद को मिटाकर चौला पहनना पड़ता है स्वभाव से विपरीत। आँसू को पलकों की दहलीज़ पर कैद करके झूठी हँसी होठों पर सजाकर बस कठपुतली बनना पड़ता है। जब कोई हरी-भरी वादीयों में घूमने भी जाता है तो कुछ ही दिन भाता है घर की याद बेचैन कर देती है, सोचो एक लड़की को मायका कितना अज़ीज़ होता होगा।
पर कहते है ना उपर वाले ने एक अजीब धीरज ओर सहनशीलता की नींव रखी है औरतों को वरदान के रुप में।
संगीता सोच रही थी की भगवान हर घर में एक बेटी जरुर देना ताकि दूसरों की बेटी का दर्द महसूस हो हर दिल में..
इतने में सास की कर्कश आवाज़ आई ओरी अब थोड़ी पैरों की चंपी कर दे और मशीन से कपड़े निकालकर सुखा, कठपुतली इतना ही बोली जी माँजी।।