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Arunima Thakur

Abstract Inspirational

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Arunima Thakur

Abstract Inspirational

फ़िल्म का असर

फ़िल्म का असर

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फ़िल्म शब्द सुनकर ही हमेशा मेरी यह स्मृति ताजा हो जाती है। मैं बता दूँ कि मैं डरपोक नहीं हूँ पर ...। खैर बात बहुत पुरानी है हमें कुर्ला टर्मिनस से ट्रेन पकड़नी थी। ट्रेन शाम को छः बजे की थी। हम अपनी सुविधानुसार शाम पाँच बजे कुर्ला टर्मिनस पहुँच गए। तब इंटरनेट तो था नहीं कि घर बैठे पड़ताल कर लेते, फिर घर से निकलते। तो वहाँ पहुँच कर पता चला कि अभी तो ट्रेन यूपी से आयी ही नहीं है। जब आएगी तब जाएगी। हम वहीं स्टेशन पर बैठकर ट्रेन का इंतजार करने लगे। इसके अलावा दूसरा कुछ विकल्प ही नहीं था। इंतजार करते करते सात बजने को आ गए , तब जाकर कहीं उद्घोषणा हुई कि हमारी ट्रेन रात को एक बजकर दस मिनट पर रवाना होने की संभावना है। अब क्या किया जाए ? खाना-वाना तो कुछ साथ लाए नहीं थे। सोचा था रात को ट्रेन में तो मिलेगा ही। तो हमने , मैं और मेरे पति ने सामान को "अमानती सामान घर" ( लॉकर रूम ) में रखा और सोचा चलो कुछ थोड़ा घूम कर खाना-वाना खाकर आते हैं।


पर समय था कि काटे ही नहीं कट रहा था। खाना खाने के बाद भी देखा तो अभी नौ ही बजे थे। रात एक बजे तक किया क्या जाए ? रेस्टोरेंट के सामने ही सिनेमा हॉल था। बाहर किसी भली सी फिल्म का पोस्टर लगा था। फिल्म का नाम तो अभी याद नहीं। टिकट लेकर हम सिनेमाहाल के अंदर घुस गए। अंदर जाने पर पता चला कि रात का यह लास्ट शो तो आजकल "डरना मना है" फिल्म का रहता है। मेरी तो हालत खराब। मैं , हम सब जानते हैं , भूत वूत कुछ नहीं होते हैं। पर डर तो अपनी जगह पर है ना। पति ने कहा भी कि जाने दो आसपास किसी और सिनेमा हॉल में चलते हैं। पर मैंने बहादुर बनते हुए कहा," कोई बात नहीं देख लेते हैं। मेरा यह फिल्म देखने का भी बहुत मन था।" तो हम फिल्म देखने बैठ गए। पूरी फिल्म बहुत अच्छी थी।ऐसे कोई डरने वाली बात नहीं थी। पर उसमें से एक वो कहानी जिसमें वह दर्पण के पीछे कैद हो जाता है और उसकी परछाई बाहर आ जाती है। वह कहानी शायद दिमाग में कहीं अटक गई। फिल्म खत्म हुई। हम आइसक्रीम खाते हुए वापस स्टेशन पर आए। सौभाग्य से गाड़ी आकर खड़ी थी। पूछताछ कर कि वही गाड़ी है , हम अपना सामान लगाकर सोने की तैयारी करने लगे। सोने से पहले मैं प्रसाधन के लिए गई। वहां प्रसाधन कक्ष में बड़ा सा आईना देखकर तो मेरी चीख ही निकल गयी।


मुझे लगा अगर अभी यहीं मेरी परछाई ने मुझे अंदर खींच लिया तो मैं जीवन भर के लिए आईने के अंदर कैद रह जाऊंगी। मैं जल्दी से दरवाजा खोलकर भागती हुई अपने कूपे तक आई। भगवान कसम अच्छा था कि डिब्बा फर्स्ट क्लास का था। नहीं तो सब लोग सोचते इसे क्या हुआ ? ऐसे क्यों भाग रही है ? क्या कोई भूत देख लिया? मैं तो आ कर अपने पति से लिपट गई। मैं बुरी तरह से काँप रही थी। मेरे पति समझ ही नही पा रहे थे कि आखिर मुझे हुआ क्या है ? किसी ने कुछ बदतमीजी की या कुछ कहा, आखिर हुआ क्या ? मेरे मुँह से तो बोल भी नहीं निकाल रहे थे। आखिरकार मेरे मुँह से निकला, "चलिए अपन आपस में पासवर्ड तय कर लेते हैं।"


मेरे पति बोले, "पासवर्ड . . . ? वो क्यों भला ? किस बात के लिए ? तो मैंने रोते हुए कहा, "अगर कभी मैं वह फिल्म की तरह किसी आईने में कैद हो गयी तो मेरी परछाई को पासवर्ड नहीं मालूम होगा। तो आप शीशा तोड़ कर मुझे निकाल सकोंगे। तब जाकर मेरी पति को पूरी बात समझ में आयी। इन्होंने हँसते हुए प्यार से मुझे देखा और अपने अंक में भींच लिया और बोले, "जब इतना डरती हों तो जरूरत क्या थी हॉरर फिल्म देखने की" ? मैंने कहा, "भूत से नहीं डरती यह तो कुछ अलग हीं हैं।"


मैं लिख नहीं सकती कि वह यात्रा मैंने कैसे प्रसाधन कक्ष जाए बगैर गुजारी। और तो और कूपे में भी शीशा लगा हुआ था उसको भी रुमाल से ढका। इतना ही नहीं वापस आने के बाद मैंने अपने घर के स्नान घर से भी आईना हटा दिया। मैं बाद में काफी समय तक यहाँ तक आज भी अकेले आईना देखने से घबराती हूँ। मेरे पति ने मेरे लिए वह फिल्म दोबारा देखी और मुझे समझाया कि अगर तुम आईना को छूओगी नहीं तो वह तुम्हें अंदर नहीं खींच पायेगी। सुनने में मेरे पति की यह बात बकवास लग सकती हैं पर इसने मुझे संबल दिया। मेरे डर से लड़ने के लिए एक सहारा दिया। तो हम मानें या ना मानें फिल्मों का असर हमारी ज़िंदगी पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पड़ता ही है। अब मुझे ही देखिए अनजाने में देखी गयी फिल्म का असर मेरी जिन्दगी में अब तक हैं। और हाँ पासवर्ड वो तो आज भी मेरे पति को पूछना ही पड़ता हैं। कहीं मुझे मेरी परछाई ने कैद कर दिया तो ????


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