मैं, आदिवासी महिला राष्ट्रपति भाग-3
मैं, आदिवासी महिला राष्ट्रपति भाग-3
मैंने बेटी से कहा - देखते हैं, क्या होता है? अभी तो सरकार को समर्थन देने वाली पार्टी के जनप्रतिनिधियों की मत कीमत कम है। इनसे मेरी जीत सुनिश्चित नहीं होती है।
फिर इतिश्री से अन्य कुछ बातों के बीच ही अन्य कॉल आने लगे थे। उन्हें सुनने के लिए कॉल डिसकनेक्ट किया था। फिर तो कॉल पर मेरे प्रत्याशी बनाए जाने पर बधाइयों का ताँता लग गया था। जो हितैषी आ सकते थे वे मिठाई/मेवा आदि सहित, मुझे बधाई देने आए थे। सबकी भावनाओं को समझना एवं उनका आदर करना मेरा स्वभाव है। मैं सभी से आत्मीयता से मिलती एवं बातें करती रही थी।
इन सबके बीच में रात को सोने के लिए, अपने सामान्य समय से देर से बिस्तर पर आ पाई थी। यह कदाचित् विलंब के कारण नहीं अपितु मेरे मन पर छाए उमंग-उल्लास का परिणाम था कि मुझे नींद नहीं लग पा रही थी। मेरे मन में तरह तरह के विचार आ रहे थे।
मैं सोचने लगी थी कि मैं बचपन से ताश के पत्तों से खेलती रही थी मगर प्रधानमंत्री जी के पत्ते चलने की कुशलता को मैं समझ नहीं पाई थी। अब मुझे समझ आ रहा था कि देश एवं परिस्थितियों में, मैं वह हुकुम की बेगम थी जिसे एक वर्ष पहले प्रधानमंत्री जी ने जानबूझकर देश और दुनिया से छुपा लिया था। फिर आज समय आने पर उन्होंने, मुझे हुकुम के बादशाह के रूप में ऐसे दिखाया था कि उनकी चाल का काट क्या हो किसी विरोधी को समझ नहीं आ रहा था।
यह सोचते हुए मेरा ध्यान इति की कही बात पर गया था। मुझे लग रहा था कि इति सही समझ पा रही है। कदाचित् प्रधानमंत्री जी से विरोध (या/और वैमनस्य) रखने वालों के पास भी, मेरे राष्ट्रपति प्रत्याशी होने का समर्थन ही एकमात्र विकल्प बचा है।
हर राजनीतिक पार्टी को आखिर हमारा अर्थात वंचितों एवं जनजाति का मत चाहिए होता है। हर पार्टी हमारे उत्थान और हमें दिए जाने की सैकड़ों सुविधाएं, हर चुनाव में हमारे सामने प्रलोभनों जैसे रखते हैं। ऐसे में मेरे विरोध में कोई प्रत्याशी उतारना उनकी पार्टी की ओर से हमारे लोगों के मतों को अपनी ओर से विमुख करेगा।
ऐसा सोचने पर मेरा मन शांत होने लगा था। मुझे नींद लगती प्रतीत हुई थी। मैंने बेड पर दृष्टि डाली थी। कभी मेरे साथ बिस्तर में श्याम होते थे। अब वे नहीं हैं, मैं अधीर सी हुई चाह रही थी कि काश वे होते।
मैं सोचने लगी थी जब मैंने शिक्षिका के रूप में काम करना आरंभ किया था तभी श्याम को कितना संतोष हुआ था कि उनकी जनजातीय पत्नी, जिसका जन्म दूरस्थ छोटे से ग्राम में हुआ था, वह टीचर हो गई है। उन्होंने इसे अपनी स्वयं एवं मेरी बड़ी उपलब्धि बताया था।
फिर तो मैं पार्षद, विधायक एवं उड़ीसा सरकार में मंत्री भी हुई थी। यह सब देखकर श्याम एवं हमारे बच्चे कितने गर्वान्वित रहा करते थे। मेरे गाँव ऊपरवेड़ा एवं ससुराल के गाँव पहाड़पुर में, कैसा उत्सव जैसा छाया करता था।
नींद अब मेरे मन में आए अवसाद से, मेरी पलकों तक आकर भी पुनः दूर चली गई थी। मेरी हर उपलब्धि में प्रसन्न होने वाले, मेरे श्याम एवं मेरे दोनों बेटे अब इस बड़ी उपलब्धि के अवसर में प्रसन्न होने और गौरव करने के लिए मेरे साथ नहीं थे। इन तीनों के अवसान के बाद मैं राज्यपाल हुई थी और अब कुछ अनहोनी नहीं हुई तो मैं भारत जैसे 135 करोड़ नागरिक वाले विशाल राष्ट्र की ‘प्रथम नागरिक’ होने जा रही थी।
मेरे मन में संशय आया था वे होते तो भी सोच नहीं पाते, इसे सपने में भी नहीं देख पाते कि मैं एक दिन राज्यपाल बनाई जाऊंगी। मैं राष्ट्रपति चुनी जाऊँगी यह तो उनके लिए क्या मेरे स्वयं के लिए भी कल्पनातीत उपलब्धि थी। मुझे लग रहा था यह चमत्कार दिखा पाना मात्र शिव भगवान के लिए संभव था। मुझे लगा कि - कहीं हमारे प्रधानमंत्री जी, शिव के अवतार तो नहीं! उनके स्मरण से मैं मन ही मन श्रद्धानत हुई थी। आखिर फिर मुझे नींद आ गई थी।
दिन भर जो घटित हुआ था। सोने के पूर्व में जो सोचती रही थी, कदाचित् यह उसका प्रभाव था कि रात भर मुझे सपने दिखाई देते रहे थे। कभी मैं सपने में हर्षित होकर हँस पड़ती या किसी घटना के अवसाद से दुखी होकर अशांत होकर हाथ पाँव पटकने लगती थी। इस स्थिति में होने से, समय समय पर मेरी नींद हल्की होती या टूट जाती थी। फिर जब नींद वापस आ जाती तो मेरी बंद पलकों के साने सपने पुनः चलने लगते थे। हल्की नींद में मैं उन सपनों को याद रखने की कामना करती रही थी कि सुबह जब मेरी नींद खुले तब मैं अपने सपने, मंदिर में जाकर शिव जी को कह सकूँ।
कम समय सो पाने के बावजूद भी जब मैं उठी तब मेरा मन उमंगों से भरा हुआ था। शीघ्रता से दैनिक क्रियाओं से निवृत्त और नहा चुकने के बाद, मैं मंदिर पहुँची थी। मेरे आसपास मेरे सुरक्षा कर्मी तैनात हो गए थे।
आज मंदिर में उपस्थित लोग आत्मीयता से हाथ जोड़कर मेरा अभिवादन कर रहे थे। मैं सब का उसी तरह से अभिवादन करते हुए उत्तर दे रही थी। शिव जी के समक्ष पहुँच कर, मैं हाथ जोड़कर खड़ी हो गई थी। मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं थीं।
अब मुझे लग रहा था शिवजी साक्षात मेरे सामने बैठे हों। मैं उन्हें बता रही थी -
“मेरे भगवान इतने वर्षों बाद, रात सपनों में मैं मेरा बचपन देख रही थी। मैं गाँव के पूर्व की तरह उसी अपने घर में थी जो अब वैसा नहीं रहा है। मैं ऊँचे ऊँचे पेड़ों पर बाँधे गए हिंडोलों पर अपनी सखियों के साथ झूल रही थी। मैं जंगल के झरने में सखियों के साथ नहा रही थी। मैं जंगल में लगे वृक्षों से बेर, अमरुद एवं सीताफल आदि फल तोड़ तोड़ कर खा रही थी। घर में मैं मुर्गियों को दाना खिला रही थी, मवेशियों का चारा पानी कर रही थी। घर-परिवार में मेरे माँ-पिता, दादी-दादा एवं भाई, तथा गाँव में सभी चाचा-चाची आदि सभी अपने पुराने रूप एवं अवस्थाओं में थे। यह सब मेरे सपने में था। यथार्थ में आज सब बदल गया है। मेरे दादा-दादी माँ-पिता, गाँव के चाचा-चाची अधिकतर गुजर गए हैं। जो कुछ बचे हैं वे वयोवृद्ध हो गए हैं।
भगवान जी, वे होते तो अपनी “पुत्ती” को राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर पहुँचते देख कर कितना गौरव अनुभव कर रहे होते। मैंने फिर पूछा था - भगवान, क्या पुराना समय आप नहीं लौटा सकते? क्या आपमें यह सामर्थ्य नहीं है?
मेरे सामने (कल्पना में) विराजित शिव जी के मुख पर मधुर मुस्कान आई थी। उन्होंने विनम्रता से कहा - मुझमें सामर्थ्य तो है। मैं वह समय भी लौटा सकता हूँ।
वे चुप हुए तो मैंने बच्चों जैसे मचलते हुए कहा - तो भगवान, लौटा लाइए न वह हमारा पुराना समय।
शिव जी पुनः मुस्कुराए थे। उन्होंने कहा - द्रौपदी, मुझसे माँगने में उतावली नहीं करो। पहले तुम धैर्य सहित विचार कर लो। अगर वह समय मैंने लौटा लाया तो आज का यह समय नहीं रहेगा। अर्थात आज तुम्हारी बेटी तथा उसकी नन्हीं बेटी नहीं रहेगी। आज तुम राष्ट्रपति बनने जा रही हो यह बात भी नहीं रहेगी। अगर यह तुम्हें स्वीकार हो तो कहो, मैं पुराना समय वापस ले आता हूँ।
मैं विचार में पड़ गई थी। मुझे समझ आया था, मैंने बहुत कुछ खो दिया था फिर भी बहुत कुछ पाया भी था। मुझे विचारमग्न देखा तो शिव जी ने कहा -
द्रौपदी, तुम वैचारिक द्वंद में मत उलझो। समय को पलटने की आकांक्षा त्याग दो। अब तुम्हें भारत राष्ट्र के निर्माण में सहभागी बनाया जा रहा है। तुम उस दायित्व का निर्वाह करने के लिए स्वयं को तैयार करो। तुम्हें पलटना ही है तो भारत का समय पलटने का प्रयास करो। तुम्हारा भारत कभी विश्व के शीर्ष पर था। विश्व का नेतृत्व करता था। आज वह प्राचीन सुनहरा भारत नहीं रहा है। तुम इसका भविष्य सुनहरा करने का दायित्व ग्रहण करो। तुम इस हेतु अपने शेष जीवन को लगाओ। तुम अपनी निजी कामनाओं की आहुति दो और यह आहुति देते हुए भारत के नागरिकों की कामनाओं को पूर्ति की दिशा में काम करो।
मुझे शिव जी का आशीर्वाद मिल गया था। मैंने आँखें खोल ली थीं। अब साक्षात शिव जी की प्रतीति नहीं रही थी। सामने शिव जी की प्रतिमा आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाए विराजमान थी। मैंने उनकी चरण वंदना की थी। मैं मंदिर से लौट रही थी। मैं शांत चित्त होकर बहुत से संकल्प ले रही थी।”
फिर दिन बीतने लगे थे। प्रधानमंत्री जी से कॉल पर मेरी बातें होतीं रहीं थीं। उनके परामर्श पर मैं सभी पार्टियों एवं नेताओं से अपने समर्थन किए जाने का आग्रह कर रही थी।
तब इतिश्री एवं मेरी आशा ,के विपरीत काम हुआ था। प्रधानमंत्री जी के हर प्रयास और काम का विरोध करने वाले विपक्ष ने, मेरा विरोध भी कर दिया था। उन्होंने मेरे विरोध में अपने प्रत्याशी के नाम की घोषणा कर दी थी।
इस बात से अधिक चकित मुझे उस बात ने किया था कि घोषित प्रत्याशी ने न जाने अपनी किस महत्वाकांक्षा से, अपने प्रत्याशी होने को सहमत कर लिया था। यह वह प्रत्याशी थे, जिनकी निष्ठा पहले हमारी पार्टी के साथ थी। मेरे मन में विचार आया था -
“हमारी कैसी भी महत्वाकांक्षाएं एवं आस्थाएं, हमारी राष्ट्र निष्ठा एवं दायित्वों से कम महत्वपूर्ण हैं।
जहाँ और जिसमें ऐसा नहीं है, वहाँ और उसमें सुधार की आवश्यकता है।
अगर स्वस्फूर्त एवं स्वप्रेरित होकर हम अपने में सुधार नहीं कर सकते हैं
तो देश के कानून एवं व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो हमें अपने राष्ट्र दायित्व एवं निष्ठा का सबक सिखा सके।”
मुझे समझ आ गया था। राष्ट्रपति पद तक मैं निर्वाचन प्रक्रिया का सामना करने के बाद ही पहुँच सकूँगी।
मैंने इस स्थिति में संकल्प लिया कि जब राष्ट्रपति होने के बाद मैं कानून एवं व्यवस्था के सर्वोच्च पद पर विराजित हो जाऊँगी तब मैं भारत में वह कानून एवं व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए काम करुँगी जिससे, जिनमें भारत के नागरिक होते हुए भी अपने राष्ट्र दायित्व एवं निष्ठा का बोध नहीं है, उन्हें सबक सिखाया जा सके। उन्हें भारत के सच्चे नागरिक बनने के लिए प्रेरित किया जा सके।
अब मुझे मेरे सामने के प्रत्याशी राष्ट्रपति पद पर विराजित होने के अयोग्य लग रहे थे। मैं सोच रही थी जिसकी महत्वाकांक्षा ने उनकी स्वयं की पार्टी के प्रति निष्ठा बदल दी है। जिन्होंने उन विरोधियों की ओर से प्रत्याशी होना पसंद किया है, जिनके बारे में वे हमारी पार्टी में रहते हुए, वे तीखी टिप्पणी करने के लिए ख्यात थे। ऐसे स्वयं अपनी निष्ठा बदलने वाले व्यक्ति नागरिकों के, राष्ट्रनिष्ठ होने की प्रेरणा कैसे दे सकते हैं।
वे मुझसे हर अपेक्षा यथा - अधिक उम्र, अधिक पढ़े लिखे, अधिक धनवान एवं कुलीन होने पर भी मेरी तुलना में कम योग्य लग रहे थे। मैं राष्ट्रवादी पार्टी की निष्ठ कार्यकर्त्ता एवं राष्ट्रनिष्ठ महिला थी।
ऐसी तुलना करने के बाद मुझमें आत्मविश्वास बढ़ गया था। राष्ट्रपति होकर मुझे सब के बारे में सोचना था। मुझे सबका साथ चाहिए था। सबका विकास मेरा ध्येय होने वाला था। ऐसे विचारों एवं संकल्प से ही, भारत विकास की नई नई मंजिल तय कर सकता था।
मैंने प्रधानमंत्री जी के विरोधियों से भी मिलना और उनसे अपने समर्थन की प्रार्थना करना आरंभ कर दिया था।
(क्रमशः)
