छूटते किनारे
छूटते किनारे
अच्छी तरह धुलाई करने के बाद पूरे घर को आज गंगाजल से पवित्र किया जा रहा था। मैं सोचने लगी जो व्यक्ति जीवन भर कुत्सित विचारों के अत्याचारों से ग्रसित रहा क्या उसके मन के उद्वेगों को भी यह गंगाजल पवित्र कर शान्त कर पाएगा।
बिखरी हुई सिगरेट की राख और शराब की खाली बोतलों के ढेर उसके जाने के बाद भी हर पल उसके दिए जुल्मों की याद दिला उसके दिये जख्मों को मिटाने में असफल रहे। मन में कहीं किसी कोने में उसके लिये जहाँ एक अनजानी सी खुशी हो रही थी कि चलो निर्दयी से पीछा छूटा पर वहीं दूसरी तरफ शृंगार मिटाये जाते समय कई खुशियाँ जो उसके जीवन से किनारा कर रहीं थीं उनके लिये सोच कर मन भीतर से बहुत दुखी हो रहा था ।पर मेरे हाथ में कुछ भी नही था क्योंकि मैं बस घर के भीतर की एक बेबस कोठरी थी जिससे वह अपने सभी रंज-औ-गम कह लेती थी।