महोत्सव
महोत्सव
हमारा भारतवर्ष उत्सवों का देश है। हर दूसरे दिन कोई न कोई पर्व हम मनाते है। कहने को भले ही यह किसी देवी देवता से जुड़े हो, वास्तव में यह हमें प्रकृति की पूजा (सुरक्षा, संरक्षण) का सन्देश देते है।
दीपवाली पंच दिवसीय महोत्सव के रूप में मनाई जाती है। वैसे सच में देखें तो यह पूरा पंद्रह दिवसीय महोत्सव होता है। समय के साथ साथ जैसे परिवारों का विघटन हुआ वैसे ही त्योहारों का भी । संयुक्त परिवार के रहने वाले हम आज अपने पूरे कहे जाने वाले परिवार से भी दूर है। माँ बाप एक जगह, बच्चे अलग। यहां तक आज तो पति पत्नी भी अलग शहरों में रहते है।
वही हाल उत्सवों का है। आज हम मुख्य मुख्य उत्सव ही मनाते है। मुख्य उत्सव भी हर्षोल्लास से नहीं मनाते है। आज उत्सव सिर्फ छुट्टी बन कर रह गए है। कुछ उत्सवों से तो आज की पीढ़ी परिचित भी नहीं है। हमने उन स्वर्णिम दिनों को भी जिया है। तो हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम उन यादों को कहानी रूप में सहेज कर जाएं। जिससे आने वाली पीढ़ी यह जान सकें कि उत्सव क्या थे और उनका असली स्वरूप क्या था ? जी हाँ असली स्वरूप, बाबा, दादी, ताऊजी, पापा से सुनी बातों के आधार पर लिख रही हूँ।
चलिये शुरू करते है दीपावली महोत्सव के प्रथम दिन धन त्रयोदशी से। इस दिन आज कल लोग, नहीं जाने दीजिए मैं यह नहीं लिखूंगी कि लोग आज कल क्या करते है। मैं आज से पचास साल पहले के समाज और उसके त्योहार मनाने के तरीके और कारण लिखूँगी। हाँ तो सबसे पहले सफाई क्यों करते है होली व दीवाली से पहले ? क्योंकि बारिश और कड़कड़ाती शीत ऋतु के समय घरों में सीलन आ जाती थी। सर्दियों में जलाई गई अलाव व अँगीठी के धुएं के कारण घर काला पड़ जाता था। इसलिए दीवाली से पहले सफाई और होली से पहले घरों की पुताई करवाते थे। हर साल दो साल पर पुताई से गाँव के लोगों को गाँव में ही जीवनयापन के लिए रोजगार मिल जाता था।
यहीं कारण धनत्रयोदशी पर बर्तन, गहने खरीदने का था। पुराने समय में बर्तन कभी कभार ही खरीदे जाते थे, गहने भी शादियों के समय। सामान्य परिवारों में उपहार की प्रथा इतनी प्रचलित नहीं थी। तो बर्तन बेचने वाले बनिया जेवर बेचने वाले सुनार, नये कपड़ों के लिए दर्जी, इन सभी को त्योहार से पहले कमाई हो जाती थी ताकि सभी हँसी खुशी त्योहार मना सकें।
मुझे याद है तब हर गाँव में दो तीन घूरे (कचरा फेंकने की जगह) होते थे। वहाँ आज की भाषा में गीला कचरा फेंका जाता था। वैसे भी तब पाँच रुपये के चिप्स के पैकेट आने शुरू नहीं हुए थे (मुझे लगता है पर्यावरण और स्वास्थ्य के सबसे ज्यादा नुकसान के कारण यहीं है )। तो नरक चतुर्दशी के दिन सभी पुरुष मिल कर वह जगह साफ करते थे । साल भर में वह घूरा एक अच्छी खाद में बदल जाता था शायद उसे खेतों पर पहुँचा दिया जाता था। फिर शाम को हम बच्चे पहला दिया उस घूरे पर रखकर आते थे। प्रतीकात्मक रूप में देखे तो साल भर जिस स्थान ने पूरे गाँव की गंदगी को संभाला उसे पहला दिया समर्पित करना एक सम्मान देने जैसा था।
दीपावली में दीये इसलिए लगाते थे कि बारिश के बाद पैदा हुए कीट पतंगे, मच्छर आदि उन दीयों की गर्मी और प्रकाश से मर सकें।
दीपावली के दूसरे दिन को परेवा कहते है। कहते थे आज के दिन खुश रहोगे तो पूरा साल हँसी खुशी बीतेगा। इसलिए लोग एक दूसरे से मिलते हँसते बतियाते कि पूरे साल सौहार्द और मित्रता बनी रहें। वास्तव में यह गोवर्धन पूजा का दिन है। कान्हा (एक छोटे बालक) ने इस दिन ही भगवान को नहीं प्रकृति को पूजने का आवाहन किया था। और दिखाया था कि कैसे प्रकृति मनुष्य की सहायक होती है। और फिर माता यशोदा ने सात दिन आठ पहर के हिसाब से छप्पन भोग पकाया था (यह तामसिक या गरिष्ठ भोजन नहीं था। यह तो उपलब्ध सभी सब्जियों को एक साथ पकाकर बना था, करेला, दूधी, सेम टमाटर, पालक, मूली, टिंडे, बंडा सब एकसाथ मिल कर। भगवान कहते है तुम सब (मतलब हम सभी) एकसाथ मिलकर ही मुझे प्रिय हो ) कि उनका लाडला जो थक गया होगा, उसे शक्ति मिल सकें।
फिर भाई दूज, इसे ऐसे देखे, रक्षाबन्धन पर भाई बहन की रक्षा का प्रण लेता है। भाईदूज पर बहन ईश्वर से भाई की लंबी उम्र की प्रार्थना करती है। वास्तव में भाईदूज की कहानी में तो बहन अपनी बुद्धि से भाई के प्राणों की रक्षा करती है। मतलब कहीं भी लैंगिक समानता असमानता का प्रश्न ही नहीं है।
फिर छठ पूजा, जहाँ समाज मे यह मान्यता प्रचलित है कि हर उदय होने वाला अस्त होता है। छठ पूजा सिखाती है कि हर अस्त होने वाले का उदय निश्चित है। आरंभ का अंत है तो अंत का पुनः आरम्भ भी है।
आँवला नवमी, कम से कम एक दिन परिवार के साथ बाहर पिकनिक की तरह प्रकृति के बीच में, प्रकृति के साथ, शुद्ध साफ वातावरण में कुछ हल्का फुल्का (खिचड़ी) खाना, क्योकि पिछले आठ दिनों से गरिष्ठ भोजन खा रहे थे। कितना तर्कसंगत है ना।
फिर देवउठवनी एकादशी, तुलसी विवाह, पुनः प्रतीकात्मक रूप से प्रकृति पूजा का संदेश।
आज हमारे उत्सव हृदय की प्रसन्नता का प्रतीक नहीं धार्मिक कर्मकांड भर बन कर रह गए है। आइए धार्मिक कर्मकांडो को एक ओर करके उत्सवों को उनके शुद्ध रूप में मनाना प्रारम्भ करें।
कहने का अभिप्राय यह कि धनतेरस के दिन कुछ खरीदना आवश्यक नहीं है क्योंकि साल भर या जब जरूरत हो हम वस्तुएं खरीदते ही रहते है। घर की सेफ्टी भी एक बड़ा सिरदर्द हो जाती है। पर क्यों करना साल भर करते है, समय समय पर पेस्ट कंट्रोल भी करवाते है। सफाई रखना अच्छी बात है पर दीपावली से जोड़ कर खुशियों पर भार नहीं बननी चाहिए। तुलसी विवाह पूजा नहीं कर सकते तो आस पास अधिक मात्रा में तुलसी के पौधे उगाइये, आखिर सर्दियों भर चाय में डालने के काम ही आएगी। उत्सव हमारे हृदय की प्रसन्नता के लिए है, सिर पर बोझ नहीं बनने चाहिए।
