इण्डियन फ़िल्म्स 2.8
इण्डियन फ़िल्म्स 2.8
मैं और व्लादिक - बिज़नेसमैन...
हमारे शहर की सीमा प, वहाँ, जहाँ ट्राम नंबर 3 मुड़ती है, अचानक एक कबाड़ी बाज़ार खुलता है. वहाँ एक-एक रूबल में विदेशी च्युईंग गम बेचते हैंऔर जैसे ही मेरे और व्लादिक के पास पैसे जमा हो जाते हैं, हम वहाँ जाते हैं.
कबाड़ी बाज़ार में च्युईंग गम के अलावा भी बहुत सारी चीज़ें बिकती हैं, और मेरे दिमाग में ये ख़याल आता ह, कि अगर आटे से बौने बनाए जाएँ, उन्हें गाढ़े रंग से रंगा जाए और उन पर लाख का कवर चढ़ा दिया जाए, तो लोग उन्हें ख़ुशी से ख़रीद लेंगे. मैं व्लादिक को अपना आयडिया बताता हूँऔर थोड़ा बहुत मनाने के बाद हम आटा, नमक, गाढ़े रंग और कवर के लिए लाख खरीदते हैं,जो बौनों के भी काम आ जाएगा.
कबाड़ी बाज़ार सिर्फ छुट्टियों वाले दिन ही लगता , और शुक्रवार शाम को हम किचन को प्रॉडक्शन-यूनिट में बदल देते हैं. हम बौनों को बेकिंग पैन में रखते हैं, आटे को खूब गरम करते हैं, फिर पैन बाहर निकालते हैं, बौनों को थोड़ा ठण्डा होने देते हैंइसके बाद उन्हें रंग देकर उन पर लाख चढ़ाते हैं. पूरे क्वार्टर में लाख की गंध फैल जाती , मगर कला के लिए कुर्बानी तो देनी ही पड़ती है!
कबाड़ी बाज़ार में जगह घेरने के लिए वहाँ चार बजे पहुँचना होता है. इसलिए बौनों को चिंधियों वाले डिब्बे में करीने से सजा कर जिससे कि उनमें से एक भी न टूटे, मैं और व्लादिक, अपनी नींद पूरी किए बिना पैदल पूरे आधे-अंधेरे शहर से गुज़रते है, और हमसे सौ मीटर्स की दूरी पर, पीछे-पीछे तोन्या नानी चल रही है, जिससे मैं घबरा न जाऊँ. हम जगह घेर लेते हैं, और हमारे बिज़नेस-पड़ोसी शुभ कामनाओं से हमारा स्वागत करते हैं. ज़ाहिर है , उनके दिलों में ये ख़याल भी नहीं आ रहा थ, कि हम उनका मुकाबला कर सकेंगे. वाकई में, इधर-उधर नज़र दौड़ाने के बाद , मुझे कुछ अटपटापन महसूस होने लगता है, क्योंकि मेरा और व्लादिक का स्टाल बाकी स्टाल्स के मुकाबले में बहुत मरियल लग रहा था. ज़रा सोचिए: बड़ा भारी स्टाल और उस पर खड़े हैं दस माचिस की डिबिया के साइज़ के बौने जबकि औरों के पास अपने सिल्क और मखमल के लिए जगह कम पड़ रही है और उन्हें काफ़ी कुछ हाथों में भी रखना पड़ रहा है. ऊपर से थोड़ी-थोड़ी देर में तोन्या नानी आकर व्लादिक से बौने ख़रीद लेती, क्योंकि मैं उसे नहीं बेच रहा हूँ.
मगर फिर तोन्या नानी कहीं गायब हो जाती है, कबाड़ी बाज़ार अपने नाम के मुताबिक शोर मचा रहा है और मैं ज़ोर ज़ोर से चिल्लाकर और लोगों को मजबूर कर, अपने सारे बौने बेच देता हूँ. और हालाँकि आख़िरी दो – एक रूबल में नही,जैसा कि हमने सोचा था, बल्कि पचास कोपेक में बेचता हूँ, फिर भी मैं बेहद ख़ुश हूँ.
व्लादिक हर संभव उपाय करता ह, कि उसके बौनों की तरफ़ कोई न आए. ठोढ़ी पर हाथ रखे वो ग्राहकों की तरफ़ पीठ करके बैठा है और ऐसा दिखा रहा है , जैसे उसे यहाँ किसी बेहद ख़ौफ़नाक बात के होने का डर है. जब मैं अपनी चिल्ल-पुकार से किसी को आकर्षित करता हूँ तो वो सिकुड़ जाता है और बस, स्टाल के नीचे ही नहीं घुस जाता. हालाँकि उसकी बात भी समझ में आती है – क्योंकि अपने माल को बेचने के लिए जब मैं उन लोगों का भी ध्यान अपनी तरफ़ खींचता हूँजो हाथ हिला देते हैं और दुहराते हैं, कि उन्हें हाथियों में कभी भी दिलचस्पी नहीं रही.
“ये हाथी नहीं, बल्कि बौने हैं!” मैं जाने वालों के पीछे चिल्लाता हूँ. “ये बेशकीमत हैं, जापानी कारीगरी 'नेत्सुके' से कम नहीं हैं, क्योंकि इन्हें हाथ से बनाया है और बस एक-एक ही अदद बनाया गया है !”
ज़ाहिर है, ये सब बर्दाश्त करना, हरेक के बस की बात नहीं है.
हम बौनों वाली बात दुहराना नहीं चाहते, मगर हमारा बिज़नेस चलता रहता है. मैं रास्ते से कंकड इकट्ठा करता हू,उन्हें अच्छी तरह धोता हूँ, उन्हें पैकेट्स में बंद करता हूँ, और मण्डी की तरह चिल्ला-चिल्लाकर बेचता हूँ, “एक्वेरियम के लिए बजरी, सीधे बायकाल झील की तली से”. ईमानदारी से कहता हूँ, कि मैं पाँच पैकेट्स बेचने में कामयाब हो गया.
फिर मैं और व्लादिक मछली-पालन का काम करते हैं, जिससे फ्राय-फिश पैदा करके उन्हें बेचें, मगर लगातार ‘गप्पीज’ (रेनबो फ़िशेज़) ही पैदा होती हैंऔर ज़ू-शॉप'नेचर' में तो वैसी खूब हैं.
आइस्क्रीम का बिज़नेस बुरा नहीं चलतामगर जब तक डिपार्टमेन्टल स्टोर से बाज़ार तक आइस्क्रीम का बॉक्स ले जाते हैं, आधी तो पिघल ही जाती है, और जो नहीं पिघलती, उसका कुछ हिस्सा बाद में पूरे परिवार के साथ ख़ुद ही खाना पड़ता है.
घरेलू साबुन की आठ पेटियाँ एक सेकण्ड में ख़तम हो ज,क्योंकि बाज़ार में साबुन कहीं है ही नही, मगर, अफ़सोस की बात हैकि नानू के गोदाम में सिर्फ आठ ही पेटियाँ थीं.
तब व्लादिक की मम्मा अनुभवी सेल्समैन के समान ये इंतज़ाम करती है कि हम चैरिटी-फ़ण्ड के लॉटरी टिकट्स बेचें. हम लेनिन स्ट्रीट पर जाते ह, जो हमारे शहर की मुख्य सड़क ह, और दिन भर में एक तिहाई टिकट्स बेच देते हैं. ये बता दें, कि किसी ने भी कोई ख़ास इनाम नहीं जीता, और हम तय करते हैं, कि अगर बचे हुए टिकट्स खोलें जाएँ, तो जीत की राशि, हमारी लागत से कहीं ज़्यादा ही होगी. हम टिकट्स खोलते हैं.अब ख़ास बात – चैरिटी फ़ण्ड का हिसाब समय पर पूरा करना है, और तभी हम कोई नया बिज़नेस शुरू कर सकते हैं।