माँ का रूप
माँ का रूप
मधु नौलखा हार हाथोंं में लिए सोच रही थी कि जो इतने सालोंं से सासूमाँँ का रूप देखा वो सच है या जो पिछले दिनों देखा वो सच है या फिर उसे ही समझने में भूल हुई।
हार हाथों में लिए न जाने कब अतीत में पहुँँच गई। जब वो ब्याह कर आई थी, अपने मायके में तो बस वो अनचाही बेटी भर थी जो तीन बहनों के बाद बेटे की चाह में पैदा हो गई थी, बाकी की बहनोंं की तरह बस जैसे तैसे पल गई। मधु के पति ने उसे किसी के ब्याह में देखकर पसंद किया था, और सामने से रिश्ता लेकर आए थे। कहते हैं एक ज़माने में बहुत पैसे वाले लोग थे। अब न पैसा रहा न शोहरत, बस एक छोटी सी परचूरन की दुकान थी। एक ब्याहता ननद थी और सासूमाँ थीं। एक पुराना टूटा- फूटा खानदानी घर था। पिता ने बस ब्याह करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली !
मायके में तो वैसै भी उसे किसी से कोई खास स्नेह नहीं मिला था। हाँ बाकी की बहनें बड़ी थीं तो घर के काम वे ही कर लेती थीं इसलिए उसे घर के कामों की कोई खास समझ न थी। यहाँ आई तो सासु माँ रौबीली सी मिलीं। जब माँ से ही प्यार न मिला तो सास से क्या उम्मीद करे.. उसे याद है जब पहली बार पूड़ियाँ तल रही थी, एक पूड़ी हाथ से फिसलकर सीधा कढ़ाई में जा गिरी और खौलता हुआ तेल उछलकर हाथ में आ गया था। कितनी ज़ोर से चीखी थी वह ! सासू माँ दौड़कर आईं और चीखते हुए कहा "हे भगवान ! इस लड़की को ज़रा भी काम की समझ ना है ! देखो कितना जला लिया और भी न जाने क्या क्या बोले जा रही थीं। कभी उसका हाथ ठंडे पानी में डालतीं कभी जले पर घी लगातीं लेकिन डाँटना जारी था, उसके बाद मधू जब भी कोई तेल का काम करने जाती तो तुरंत कहतीं, "रहने दो हम कर लेंगे तुमसे न होगा, सब कहेंगे सास ने जला दिया बहू को।" अब ये उनकी चिंता थी या ताना ये वह ना समझ पाई।
रोज़ के खाने में अगर ज़रा भी नमक या मिर्च कम पड़ जाए, या स्वाद में ज़रा भी फ़र्क़ पड़े तो ज़ोर की डाँट लगाती थीं। लेकिन मजाल है बाहर वाला कोई कुछ मधु को कह दे ! उस दिन ननद के बेटे के नामकरण पर ताई जी ने टोक दिया था, "बहू सब्जी थोड़ी फीकी-फीकी सी बनी है।" वो कुछ कहती उससे पहले सासू माँ गरजीं "क्यो दीदी बहुरिया ने अकेले इत्ते लोगों का खाना बनाया, थोड़ा ऊपर नीचे हो गया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा।" बेचारी ताई जी अपना सा मुँह लेकर रह गई थीं।
जब मधु के पति मेले से सुंदर सी हरी साड़ी लाए थे, जो ननद ने देखते ही हड़प ली थी, "भाभी कितनी सुंदर है ये साड़ी, इसे तो मैं ले रही हूँँ।" उसने भी बेमन से वो साड़ी ननद को दे दी थी। दूसरे ही दिन बिल्कुल वैसी साड़ी सासू माँ ने उसके हाथ में रखते हुए कहा, "यह लो और ऐसे उतरा हुआ मुँह लेकर घर में घूमना अपशकुन होता है।" ऐसे न जाने कितनी यादे हैं।
जायदाद के नाम पर तो कुछ न बचा था बस एक खानदानी नौलखा हार था जो हमेशा सीने से चिपकाए घूमती रहती थीं। सबको बताती ये हार तो मैं अपनी बेटी को दूंगी। मधू की शादी को १८ साल हो रहे थे। सासूमाँ अब अक्सर बीमार रहने लगी थीं। मधू उनकी सेवा में कोई कसर न रखती। उनके इलाज में बहुत खर्चा आ रहा था। बेटे ने अब तक जो थोड़ा बहुत जमा किया था सब उनके इलाज में खर्च हो गया। अब बस घर था और वो नौलखा हार था। एक दिन बेटे ने कहा "माँ जो कुछ बचा के रखा था। सब खर्च हो गया। ला तेरा नौलखा हार दे उसे गिरवी रख के जो पैसे मिलेंगे उससे आगे का इलाज करवाएंगे।"
सासूमाँ फिर गरजी, "खबरदार जो मेरे हार को हाथ भी लगाया तो, ये मेरी बेटी के लिए है, मरना तो एक न एक दिन है ही, कल मरूँ या आज क्या फर्क पड़ता है ?"
बेटा अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा था, मधु भी पूरी सेवा कर रही थी, लेकिन सासू माँ की हालत दिन ब दिन और खराब होती जा रही थी। बेटी भी आई हुई थी माँ को देखने। एक दिन सासू माँ ने सबको बुलाया और कहा, "लगता है अब मेरे जाने का समय नजदीक आ रहा है। इतने दिनों से जो नौलखा हार मैंने अपनी बेटी के लिए संभाल के रखा है, उसे देने का वक्त आ गया है।"
ननद हार लेने बढ़ी ही थी कि सासू माँ ने आवाज दी, "मधू ये ले"। सब आँखें फाड़े सासू माँँ की ओर देखने लगे तो उन्होने कहा, "मेरी खुद की बेटी सिर्फ १८ साल मेरे साथ रही और उसके बाद जब भी आई अपने मतलब से आई। तूने अपनी पूरी जिंदगी मेरे परिवार के नाम कर दी तो सही मायनों में तू ही मेरी बेटी हुई ना।" कहते हुए उन्होंने वह हार मधु के गले में डाल दिया।
मधु सासू माँ को पकड़कर खूब रोई। इतना तो उसकी माँ ने भी न सोचा उसके लिए। आज सासू माँ उनके बीच में नहीं है और मधु हार हाथ में लिए सोच रही है, वो सासू माँ नहीं माँ का ही रूप थी, मैंने ही समझने में भूल की...