चिट्ठी
चिट्ठी
"वो चिट्ठियों का जमाना था।मैं ठहरी अनपढ़ लेकिन बड़ी इच्छा थी कि तेरे दादाजी मुझे चिट्ठी लिखें, अक्सर उनसे कहती जब वो गाँव आतेफिर आखिर एक दिन उन्होंने चिट्ठी भेज ही दी" कहते हुए दादी कहीं खो सी गईंं।
"फिरफिर क्या हुआ?दादी,आपने वो चिट्ठी पढ़ी कैसे ?" पोती की उत्सुकता कम नहीं हो रही थी।
"अरे! तब घर से बाहर निकलने की इजाजत न थी हमें और घर में सास, ससुर, देवर थे। किसी से कहती तो बेशरम कहलाती। किससे पढ़वातीबस रोज उलट पलट कर देखती और छुपा कर रख लेतीअब तक न पढ़वाई हमने वो चिट्ठीबस ऐसे ही तेरे दादाजी से झूठ मूठ कह दिया कि पढ़वा लिया वरना उन्हें बुरा लगता ना"। दादी के स्वर में एक उदासी सी पसरी थी।
"क्या कह रही हो दादीअब तक नहीं पढ़वायाबताओ, बताओ कहाँ है वो चिट्ठी, मैं पढ़ देती हूँ" पोती ने आश्चर्य से कहा।
"तू सचमुच पढ़ेगी" दादी की बूढी आँखों में चमक आ गई। "चल ठीक हैज़रा सुनूँ तो क्या लिखा था तेरे दादाजी ने"। दादी ने संदूक से चिट्ठी निकालते हुए कहा "ले" ।
पोती ने दो घड़ी चिट्ठी को निहारने के बाद पढ़ना शुरू किया -
"प्यारी कमला,
ढेर सारा प्यार, मैं यहाँ कुशल से हूँ। मेरे वहाँ न होने पर भी तुमने इतने अच्छे से घर को सम्हाला है, तभी तो मैं यहाँ बेफिक्र होकर काम कर पा रहा हूँ। तुम मेरी ताकत हो। सबके साथ अपना भी खयाल रखना।
तुम्हारा,
किशोर
दादी आँखे बंद किए चिट्ठी सुन रही थी। जाने कब आँसू आँखो के कोरों से बह निकले।पोती ने चुप चाप चिट्ठी दादी को पकड़ा दिया। उसमें कुछ नहीं लिखा था, सिवाय टेढ़ी मेढ़ी रेखाओं के।दादाजी भी तो अनपढ़ थे, ये बात शायद दादी कभी न जान पाईं।
