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घाटों का अधूरा इश्क भाग-१

घाटों का अधूरा इश्क भाग-१

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अक्सर नदियों का घाटों से प्रेम झलकता है, उनके ठहराव में, कि कैसे तेज धारा में बहती हुई नदियॉं, घाटों के सामने आते ही ठहर जाती हैं, पर घाटों की अडिगता और बेरुखी को देखकर तेजी से बह जाती हैं । आज जिस कहानी का जिक्र, मैं करने जा रहा हूँ.. वो एक एेसा इकलौता घाट है, जो सदियों से ठहरा हुआ है, अपनी नदी के इंतजार में, कि वो कब अपनी धाराओं का रुख बदलेगी और तेजी से बहती हुए, उसकी सीढ़ियों से टकरा जाएगी । इश्क के भी कैसे-कैसे रंग होते है ना कि कैसे एक निर्जीव वस्तु को भी एक जीवित वस्तु से असीम प्यार हो सकता है, और ये प्यार झलकता है, जब आप उस घाट पर कुछ पलों के लिए अपनी जिंदगी को ठहराव दे देते है, दिल में कुछ अलग सा ही महसूस होता है...वो मन को सुकून पहुँचाने वाले पल भी हो सकते है और मन को बैचेन करने वाले भी ।

अगर आप मेरा परिचय जानना चाहते है, तो बता दूँ कि मैं एक मुंबई की प्रतिष्ठ मैगजीन कंपनी के लिए फोटोग्राफी का काम करता हूँ, नाम है, " प्रयाग अग्रवाल " और इसी सिलसिले में गंगा किनारे बसे " वाराणसी " शहर आया हुआ हूँ, इस शहर को वाराणसी कहो या बनारस या भोले बाबा की नगरी, या धरती का एक और स्वर्ग...यहॉं जब सुबह-सुबह, सूरज अपनी किरणों से गंगा नदी को स्पर्श करता है, तो आँखों को लुभाने वाला बेहद ही खूबसूरत नजारा नज़र आता है । जब मंदिरों में सुबह की आरती में घंटा-नाद होता है, तो ये मधुर आवाज सुनकर दिल चहक उठता है । भोले बाबा के " ऊं नम शिवाय " मंत्र का उच्चारण तो, जैसे इस शहर की सॉंसों में बसा है, जो इसे हर वक्त गतिमान रखता है । बनारस का पान, बनारस की साड़ी और ना जाने, एेसी कितनी ही तम़ाम खास चीजें है, जो इस शहर को प्रसिद्ध बनाती है । इन सभी चीजों में, एक खास चीज़ और भी है, जिसका जिक्र अक्सर यहॉं की पुरानी कहानियों-किस्सों में मिलता है, घाटों का प्रेम या कहूँ " घाटों और नदियों को जोड़ने वाला प्रेम " । जब इस शहर की सुंदरता को मैं अपने कैमरे के लेन्सेस में उतार रहा था, तभी किसी ने मुझे यह कहानी सुनाई, जिसे सुनने के बाद, मैं इसे अपनी डायरी में लिखने से खुद को रोक नहीं पाया..आइये सुनते है, एक एेसी प्रेम कहानी, जिसने सदियों तक लोगों के दिल में अपनी जगह बनायी ।

कभी ये वाराणसी शहर भी गॉंवों में बिखरा हुआ था, बस आज वही सारे गॉंवों वाराणसी के एक नाम में सिमटे हुए नज़र आते है । यह कहानी, उस जमाने की है जब लोगों के दिलों में नजदकियॉं थी और रिश्तों में मिठास, जब एक दूसरे की खुशी और ग़म में शामिल होना लोगों का सिर्फ कर्तव्य मात्र नहीं था, जब लोगों के बीच अक्सर वार्तालाप पत्र-चिट्ठियों में हुआ करता था, जब पूरा गॉंव एक संपूर्ण परिवार की तरह बसर करता था । कभी कभी तो हैरानी होती है कि कैसे उस जमाने में मोबाइल बिना लोगों की जिंदगी खुशहाल थी, सुकून भरी थी ! कैसे लोग तब एक जगह से दूसरी जगह घूमने जाने के लिए पहले सौ बार सोचते थे, विदेश जाना तो जैसे कोई करिश्मा या बड़ी सफलता, वही आज के जमाने में मेरे जैसे लोग एक बैगपैक, कुछ चंद पैसे, एटीम कार्ड, और मोबाइल लेकर निकल पड़ते है....इन शार्ट कहूँ, तो आज के जमाने में और उस जमाने में सदियों का फासला आ चुका है ।

यह कहानी है, गंगा नदी के किनारे बसे दो गॉंव की, नाम था - चंदनपुर और गंगापुर । कभी इन दो सुंदर से नामों वाले गॉंवों के लोगों के बीच की दोस्ती इतनी गहरी थी, सभी त्योहारों-पर्वों को साथ मिलकर मनाने की पंरपरा सी बन गयी थी। सब कुछ सही जा रहा था, पर ना जाने कब इन दो गॉंवों को किसी की एेसी नज़र लगी कि दोनों के दरमियॉं दुश्मनी के सिवाय कुछ नहीं बचा । बस अब गंगा मईयॉं थी, और एक नवीन पुल, जो इन दोनों को जोड़े

रखता है ।

गंगापुर गॉंव, नदी किनारे..घाट

मोहन- राधे ! राधे, कहॉं ध्यान लगाये बैठे हो बे, कब से तुम्हें आवाज़ लगा रहे है । चिल्लाते, चिल्लाते गला सुख गया हमारा..अच्छा सुनो, तुम्हारी अम्मा बुला रही हैं ।

राधे - देखो पूरी गंगा मईयॉं है, तुम्हारे पास डूबकी लगा दो...प्यास भी बुझ जाएगी और क्योंकि तुम्हें तैरना नहीं आता तो, तुम डूब भी जाओगे तो मन को शान्ति मिलेगी । ( राधे ने हँसी-मजाक में मोहन को कहा, और घर की तरफ निकल पड़ा )

अरे, ठहरिये आप कहॉं चल दिए, राधे के साथ क्या ?? बड़े ही घुमक्कड़ है, आप लोग तो !! हमें परिचय तो कराने दीजिए ।

मोहन- मजनूं हलवाई के इकलौते बेटे, इनके पिताजी जितने गोल-मटोल है, ये उतने ही कमजोर !! पर राधे के सबसे अजीज दोस्त है, एक तरीके से कहूँ तो, आज के बेस्टी ।

राधे - हमारी कहानी के मुख्य कलाकार, गंगापुर गॉंव के एकमात्र वरिष्ठ पुजारी के बीस वर्ष के इकलौते बेटे - राधे । वैसे तो अपने बाबूजी और अम्मा के आँख के तारे है, पर उनके बाहरी प्यार से वंचित से है । राधे की पढ़ने की इच्छा तो बहुत है, पर बाबूजी का आदेश है..धार्मिक पुस्तकें पढ़ों, मंत्र पढ़ो.. इन शार्ट तुम्हें आगे जाकर पुजारी ही तो बनना है, फिर पढ़ाई करने का क्या फायदा !! तो बस, तब से ये अपना आधा दिन मंदिर में गुजारते है, और आधा दिन घाट पर, कभी -कभी तो शाम और रात भी । व्यवहार में बड़े ही शर्मीले है, शरीर से बिल्कुल स्वस्थ है, पर मन गुमसुम सा रहता है । इन्हें घाट पर गंगा मईयॉं से बातें करना अच्छा लगता है, अरे ! बहुत अच्छा लगता है । कभी महाशय घाट पर पेंटिग करते वक्त समय गुजार देते है, तो कभी कलम उठाकर काग़ज पर कुछ लिखते रहते है । इन्हें गंगा मईयॉं के करीब पहुँचते ही लगता है, कि ये तन्हा नहीं है और सिंगल तो बिल्कुल भी नहीं । एक दूरबीन भी रखते है, अपने पास..शायद पूर्णिमा के चॉंद को नजदीक से देखने के लिए, या फिर नदी के किनारे, दूसरी ओर बसे

गॉंव " चंदनपुर " को देखने के लिए ।

राधे - हॉं, अम्मा हमें बुला रही थी, क्या ??

अम्मा - हॉं, वो हम भूल गये, जरा सा मंदिर चले जाओगे, वो तुम्हारे बाबूजी का पूजा का सामान यहीं रह गया है ।

राधे - लाओ अम्मा, जाते है..पता नहीं, तुम्हारी भूलने की बीमारी कब जायेगी !!

राधे की अम्मा - बड़ी ही विचित्र प्राणी, एक इंसान होता है, भुलक्कड़..और एक ये है, काम की बात के अलावा इन्हें सब याद रहता है, और राधे पर अपनी जान छिड़कती हैं ।

राधे - ये लीजिए, बाबूजी..अम्मा भिजवाई है पूजा का सामान ।

बाबूजी - कहॉं रहते हो, आजकल..सुनो तीन बजे मंदिर में बहुत बड़ी पूजा है, हमारे साथ रहो..और पूजा की विधियॉं सीखो ।

राधे - बाबूजी ! तीन बजे नहीं हो पायेगा, माफ कीजियेगा । ( वहॉं से चला गया )

राधे के बाबूजी - बिल्कुल नारियल की तरह, बाहरी रुप से सख्त है, पर अन्दर से नरम । राधे को बार-बार डॉंटते है, उतना ही प्यार भी करते है । गॉंव वालों की नजरों में इनका जितना ऊँचा दर्जा है, उतनी ही बखूबी से यह अपना काम भी निभाते है ।

कुछ सुना आपने, तीन बजे ? ज्यादा दिमाग ना चलाइये..बताता हूँ । राधे और तीने बजे का कुछ अलग सा ही संबध है, वो क्या है ना, राधे और उसकी प्रेमिका का मिलन तीन बजे होता है.. हॉं, उसकी प्रेमिका । शर्मीले से राधे के भी प्रेमिका है ! राधे की अपनी प्रेमिका से मुलाकात घाट पर हुई, एक दिन जब राधे काग़ज पर कुछ चित्रकारी करने में व्यस्त था कि तभी उसने नदी की दूसरी ओर खड़ी एक लड़की को देखा, फिर क्या था, अपनी दूरबीन उठाई और, उसे और करीब से देखने लगा...ये पहली नज़र की मुलाकात कब प्यार बन गया, पता ही नहीं चला, कुछ समय बाद उस लड़की ने भी राधे को गौर से देखा और नजरअंदाज करके चली गयी । बेचारा, राधे एक तरफ उदास हो गया, और दूसरी तरफ उसका दिल उम्मीदों से भर गया और वो जागते-सोते, बस उस लड़की के बार में सोचने लगा । दोनों की मुलाकातें होने लगी, ठीक उसी समय पर नदी के दोनों किनारों पर अंजानों की तरह...पर कहते है, ना ! कौन बचा पाया है, अपने दिल को इस इश्क की महफिल से ! वहीं यहॉं भी हुआ, हारकर लड़की ने भी अपना दिल राधे को देने में देर ना लगाई या कहो, दोनों ने एक दूसरे के दिल में बसने में देर ना लगाई । दोनों ने गॉंवों को जोड़ते मेन पुल के जरिये मुलाकातों का दौर बढ़ाया और प्रेम भरी चिट्ठियों का सिलसिला भी चलाया । अक्सर राधे, उसे प्रेमिका कहने से हिचिकता है, उसे ' अपनी पाखी ' कहकर पुकाराता है ।

हॉं, राधे की प्रेमिका का नाम है, " पाखी ", चंदनपुर के सरकारी स्कूल के हेडमास्टर की तीन बेटियों में सबसे बड़ी बेटी । पाखी की सुंदरता जैसे कोई स्वर्ग की परी, हदय से उतनी ही कोमल, व्यवहार में गंगा जैसी निर्मलता और बचपना तो, जैसे कुट-कुट के भरा हो । अपनी बहनों में सबसे बड़ी होने की वजह से, वो अपने बाबूजी और अम्मा की दुलारी भी है ।

इधर जिस गति से राधे-पाखी का प्रेम परवान चढ़ रहा था, उतनी ही गति से दोनो गंगापुर और चंदनपुर गॉंव में एक बात आग की तरह फैल रही थी, कि फिर से बग़ावत होने वाली है !!


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