खिड़की
खिड़की
" कुछ यूँ मैनें तुझे छोड़ा,
जैसे खशबू ने फूल का दामन छोड़ा",
मैं अपनी डायरी में ये दो पंक्तियॉं लिख ही रही थी कि मम्मी ने आवाज लगाई।
"क्या कर रही हो, अदिता ?? हमें लेट हो रहा है ", माँ ने आवाज लगाई।
"बस दो मिनट दे दो, आ रही हूँ ", मैनें चिल्लाते हुए कहा।
शायद, उस वक्त दो मिनट भी काफी नहीं थे, उन मजबूत जज्बातों के दबाव को झेलकर खुद को संभालने के लिए, उन महकती हुई यादों को अपने दिल की तिजोरी में कैद करने के लिए, उन दो पलों में सब कुछ एक बार फिर से दिल से महसूस करने के लिए। मैनें एक बार फिर से कमरे की दीवारों की तरफ देखा, जहॉं कभी हैरी पोटर के पोस्टर से लेकर मेरे हाथों के द्वारा बनायी हुई पेंटिग्स चिपकी रहती थी। ना जाने कितने ही दाग़ छोड़कर जा रही थी फेविकॉल या गम से चिपकायी हुई, ये पेंटिग्स। किताबों वाली रैक की तरफ से मुझे सिसक सिसक कर रोने की आवाज आ रही थी, शायद उसे भी मेरी पंसद की किताबों से लगाव हो गया था। पंलग के पास वाला दराज़ खाली और खुला हुआ था। एक बार तो मैनें उसे बंद कर दिया फिर ना जाने क्या ख्याल आया और उसे खोलकर आ गयी।
"कितनी देर लगाती हो, दो मिनट की कहा और आधे घण्टे लगा दिये। अदिता, तुम्हें अंदाजा तो है ना पापा के गुस्से का। अब चलो, गाड़ी में बैठो" मम्मी ने डाँटते हुए कहा।
मम्मी ने पापा के गुस्से वाली बात बिल्कुल सही कही थी, पर हमेशा से नरम रहने वाली मम्मी को आज गुस्से में देखकर ये साफ झलक रहा था कि उन्हें भी घर छोड़ना अच्छा नहीं लग रहा था। गोवा में रहते हुए हमें आठ साल हो चुके थे, इसी साल मैनें बारहवीं की बोर्ड परीक्षाएं दी थी। बस फिर क्या था, पापा ने ट्रांसफर होने का फैसला ले लिया। क्या आठ साल कम होते है? किसी को अपनाने में या अपना बनाने में, तो फिर तो ये गोवा शहर था, जहाँ एक बार घूमने की इच्छा हर इंसान की होती है और फिर हम तो यहाँ आठ सालों से रह रहे थे।
" अदिता, सब कुछ चेक कर लिया ना, कुछ छूट तो नहीं गया। हम अब यहाँ दुबारा नहीं आयेंगे ", पापा ने पूछा।
" क्यों होता है, ऐसा अक्सर साथ निभाते है जो, उनसे ही साथ छूट जाता है ",
मैनें अपनी डायरी में ये दो पंक्तियाँ लिखीं और आँखों को बंद करके सोने का नाटक करने लगी। शायद, मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि खुली आँखों से अपने सपनों को टूटते हुए देख सकूँ या फिर अपने शहर ' गोवा ' को छोड़ सकूँ।
" अरे ! तुमने अपने कमरे की खिड़की तो खुली ही छोड़ दी !! तुम भी ना", पापा ने डाँट लगाते हुए कहा।
" रुकिये, मैं बंद करके आती हूँ ", मम्मी ने झट से कहा।
" नहीं, कोई जरुरत नहीं है। हमें लेट हो रहा है ", पापा ने गुस्से में कहा और ड्राइवर को चलने को कहा।
वो खिड़की मैनें भूल से खुली नहीं छोड़ी थी, जैसा पापा ने कहा था। दरअसल उस खिड़की को खोलने की एकमात्र वजह था, जॉय जैसा नाम, वैसा इंसान। हमेशा खुश रहने वाला, सबको हँसाने वाला मुझ जैसी इन्टरोवर्ट लड़की को एक्सटरोवर्ट बनाने वाला, केरला के बाद गोवा से प्यार कराने वाला। हम दोनों की मुलाकात स्कूल की छठी क्लास में हुई थी। पहली बार किसी कॉनवेंट स्कूल में मेरा दाखिला होना, लड़कियों के झुंड से निकलकर लड़कों के दल में अपनी जगह बनाना और जॉय का मेरा बेस्ट फ्रेंड बनना। नहीं ! सिर्फ फ्रेंड नहीं बल्कि प्यार की परिभाषा समझाने वाला, प्यार में विश्वास कराने वाला। मुझे याद है, मैनें ना जाने कितनी बार जॉय को बताने की असफल कोशिश की, पर बता ना सकी
" तुम्हारे नाम जॉय है, पर तुम्हारी खुशी को साथ लिये जा रही हूँ। हो सके तो खुद को संभाल लेना, दो पल के लिए मुझे याद करके हँस लेना"
इन चार पक्तियों के साथ मैनें सब कुछ लिख दिया था, उस आखिरी खत में जो उसे कभी सामने से नहीं कह पायी। कल शाम को मैनें प्यार भरे कागज के इस टुकड़े को उसके घर के बाहर लेटरबॉक्स में डाल दिया था। उस दराज को मैनें यूँ ही खुला नहीं छोड़ा था, बल्कि हर वक्त खतों से भरे रहने वाले दराज को हवा में साँस लेने के लिए छोड़ आयी थी। और हॉं, जो खिड़की कभी 'आधी बंद, आधी खुली ( परदे से ढँकी ) रहती थी', मैं उसे आज पूरा खोल आयी थी। इसी ख्याल के साथ कि अब कभी भी कोई अदिता परदे के पीछे से जॉय को चुपके से नहीं देखेगी और जॉय को उसकी मौजूद होने का इशारा नहीं मिलेगा।

