इंकार
इंकार
"पापा चिन्ता मत करिये मैं माँ को लेकर समय पर पहुँच जाऊँगा।" अपने पापा से फोन पर बात करते हुये उसका आत्मविश्वास देख मुझे भीतरी खुशी होने के साथ ही याद आने लगा वह समय जब बचपन में ठुनकते हुये "पापा मुझे साइकिल चाहिए " नन्हें बंटी ने ज़िद की थी। बेटे की प्यारी सी मनुहार पर किसका दिल न डोल जाये। चल दिये पापा मम्मी बेटे को मनपसंद साइकिल दिलाने। बेटे के बड़े होने के साथ साइकिल का आकार भी बड़ा हो रहा था।पहले छोटी तिपहिया साइकिल फिर बड़ी साइकिल। इधर साथियों को तेज़ रफ्तार बाइक चलाते देख अब उसका मन बाइक चलाने के लिए मचलने लगा था। दोस्तों के साथ एक आध बार वह हाथ भी आजमा चुका था। " मेरा बहुत सा समय आने जाने में चला जाता है। पढ़ाई के लिये समय कम मिलता है अब आप मुझे एक बाइक दिला दीजिए। जिससे मैं समय की बचत कर सकूँ।" पूरे आत्मविश्वास के साथ ऐसा कह वह हम दोनों के चेहरों के उतरते चढ़ते हुए भाव देखने लगा। वैसे तो उसकी हर इच्छा पूरी करने की हम कोशिश करते थे पर अबकी बार "बेटा! कोई बात नहीं थोड़ा ज्यादा समय लगता है लगने दो ।तुम्हारे अट्ठारह साल के पूरे होने से पहले मैं तुम्हें बाइक चलाने की इजाज़त नहीं दे सकता। तेज़ रफ्तार जिन्दगी जीने के लिए अभी बहुत समय है। पहले जिन्दगी की रफ्तार को बस में करना तो सीख लो।"यह कहते हुये इन्होंने एक समझदार पिता की तरह बेटे को इंकार सुनना भी सिखा दिया था।