देहरी
देहरी
'बस यहीं रोक दो।'
आवाज़ सुनते ही पवन ने रिक्शा एक बड़े से मकान के सामने रोक दिया। अपने गमछे से पसीना पोंछते हुए इंतजा़र करने लगा। होली नज़दीक थी। चटक धूप में रिक्शा चलाना कठिन हो गया था। लड़़की रिक्शे से उतरी और उसे एक नोट थमाकर तेज़ी से चल दी। पवन ने विरोध किया- "मैडम बात तो पंद्रह रुपए की हुई थी।"
पर तब तक वह मकान के भीतर जा चुकी थी। पवन ने उस बड़े से मकान को घूर कर देखा और मन ही मन बड़़बड़ाया- 'गरीब का मेहनताना देते जान निकलती है।'
खाने का समय हो गया था। वह रिक्शा लेकर उस होटल की तरफ चल दिया जहाँ उसके जैसे रिक्शे वाले तथा दिहाड़ी मजदूर खाना खाते थे।
तीन महीने पहले वह इस शहर में यह सोचकर रिक्शा चलाने आया था कि कमाई से कुछ बचाकर घर भेज दिया करेगा किंतु हालात यह है कि जो कमाई होती है उसमें से रिक्शे का किराया देने के बाद मुश्किल से दो वक्त खा पाता है। रहने का कोई ठिकाना नहीं है। रात फुटपाथ पर सो कर गुजारता है।
जब घर से चला था तब उसकी पत्नी पिंकी ने उस से कहा था- "फाग में तो आओगे ना, मैं राह देखूंगी।"
उसने समझाते हुए कहा, "पूरी कोशिश करूंगा। मैं भी तुम्हारे बिना कहाँ रह पाऊँगा। तुम अम्मा का ख्याल रखना।"
"तुम अम्मा की फ़िक्र मत करो। मैं संभाल लूंगी। तुम जल्दी लौटना।"
घर छोड़ते समय पिंकी देहरी पर खड़ी उसे जाते हुए देखती रही। पवन ने पीछे मुड़ कर उसे देखा। उसने भी दूर से हाथ हिला कर विदा दी।
खाते हुए उसने एक आह भरी। इतने दिनों में वापस जाने का किराया भी नहीं बचा पाया।
होली का दिन था। सभी तरफ रंगों की बहार थी। वह एक सवारी को छोड़ कर जा रहा था। तभी एक बच्चे ने अपनी पिचकारी से उसे भिगो दिया। उसे पिंकी के साथ अपनी पहली होली याद आ गई। वह पिंकी के ख्यालों में खो गया। सामने से एक तेज रफ्तार कार आ रही थी जिसमें नशे में धुत्त कुछ मनचले बैठे थे। कार उसके रिक्शे को टक्कर मार कर निकल गई। एक शोर सा उठा। आस पास भीड़ जमा हो गई।
पिंकी देहरी पर खड़ी उसका इंतजा़र कर रही थी। उसे देखते ही खुशी से उसकी तरफ दौड़ी। 'मैं जानती थी कि फाग में तुम जरूर आओगे। अरे, यह क्या तुम्हारा बदन तो खून से सना है। यह क्या हो गया।'
उसने घबराकर पवन को बाँहों में समेट लिया। पवन की साँसें उसका साथ छोड़ने लगीं। आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। घर की देहरी दूर होने लगी। एक हिचकी के साथ उसके प्राण निकल गए।
खून से लथपथ पवन की लाश सड़क पर पड़ी थी।