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Tulsi Tiwari

Crime Drama Tragedy

2.3  

Tulsi Tiwari

Crime Drama Tragedy

सेवाएंँ समाप्त

सेवाएंँ समाप्त

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‘‘अंगुरी में डंसले बा नगिनियाँ, हमरा पिया के बलाई द ....ऽ....ऽ....ऽ ! अंगुरी में डंसले बा नगिनियाँ, हमरा पिया के बलाई द .....ऽ .....ऽ ....ऽ ! पुराने समय का भोजपुरी लोकगीत, तबला, ढोलक, हारमोनियम का साथ और मधुर कंठी गायिका का अलाप ! श्रोता मंत्रमुग्ध थे।

वह एकटक गायिका को देख रही थी, दुबली-पतली लंबी सी, किंचित साँवले रंग की, चेहरे के भाव दर्शकों को उस अंगुरी की जहरीली पीड़ा से जोड़ रहे थे, जिससे लोक नायिका पीड़ित थी।

पहले वह भी तो बहुत अच्छा गाती थी, स्कूल काॅलेज में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की जान थी वह ! अभी भी तो सारे मैडल्स, ट्राफियाँ सजी हैं, उसके कमरे में। बहुत दिन हुए उसने गाना छोड़ दिया, लड़के वाले आये थे लड़की देखने, गाने की फरमाइश हुई थी, उसने निःसंकोच गाया, ‘‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई, जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।’’ उसने पूरी तन्मयता से गाया था। लोग शांत सुनते रहे थे, लगा जैसे रिश्ता पक्का, किन्तु वे कहकर चले गये थे ‘‘घर में सलाह करके उत्तर देंगे।’’ कई बार फोन किया किन्तु उनकी सलाह पूरी नहीं हुई, किसी से पता चला, गाना ही सब कुछ थोड़ी है ? चार लोगों में कैसे लेकर जायेगा हमारा बेटा ऐसी लड़की को ?’’

मन उचट गया था गाने से, जब देखो तब गाने की आज्ञा, लड़की न हुई कोई गुड़िया हो गई, चाबी भरो, नचा लो!

हाँ ..ऽ...ऽ ... ! सुनने का लोभ नहीं निकाल सकी अपने मन से, टेप रिकाॅर्डर, ढेर भर केसेट रख छोड़ा है उसने, धीरे धीरे संगीत की स्वर लहरियों में खो जाती है उसकी रात की तन्हाई। सुबह का अकेला पन।

‘‘अकेलापन ? हाँ, अकेलापन ! अभी-अभी, जब से माँ छोड़कर गई है, तब से उस बड़े से मकान में वह अकेली ही रह रही थी, यूं वह अकेली नहीं भी थी उसकी डिग्रियाँ, प्रमाण-पत्र, संग्रह के गान,े कुछ, जासूसी उपन्यास, टी.वी. उसके साथ रहते थे। माँ के काँय-कचर में कभी आधा घंटा टी.वी. नहीं चला पाई, कभी ये लगा तो कभी वो, कभी ये दर्द तो कभी वो, ये नहीं खाऊँगी, वो नहीं खाऊँगी, बस नचाती रहतीं थीं, फिरकी की तरह। जितना मुँह में आता वह भी तो सुना देती थी, करना तो पड़ता ही था, कभी दीदी आती, कभी भाभी भइया, दो दिन के लिए आते बड़ा अपनापन जताते, ‘‘मम्मी को ये खिलाओ, वो खिलाओ, ऐसे उठाओ, ऐसे बैठाओ, घुमाने ले जाओ, परन्तु जैसे ही वह दबी ज़बान से कहती ‘‘ले जाओ न कुछ दिनों के लिए अपने ही पास ! माँ तो सभी की है मुझसे जैसे बनता है करती हूँ’’। बस्स ! उबलते दूध पर पानी पड़ जाता ! प्रेम दिखाने के लिए उल्टा-पुल्टा खिला देंगे, बाद में धोना तो उसे ही था न ? सबके लिए निंदनीय बन गई, ‘‘सारे गहने ले लिए माँ के, सारी पेंशन खा रही है, माँ-पिता की। सारा खेत अपने नाम करा लिया, शरीर से भी ज्यादा मन की गंदी है ।’’ वह दूसरे तीसरे से सुना करती।

क्या करती न खाती तो ? उसके पास कहाँ से आता ? माँ के इलाज के लिए, घर के रख-रखाव के लिए ? या फिर जो उन्हें देखने के नाम पर हर माह चले आते हैं, उन्हें खिलाने के लिए। कहाँ-कहाँ दौड़ती भागती, माली, महरी, बिजली, पानी का बिल म्युनिसिपलिटी का टैक्स, सब तो भरना है उसे, कोई पूछता है कैसे चला रही हो ? रही बात घर खेत की तो माँ ने खुद ही उसके नाम रजिस्ट्री की थी।

’’कैसे जियेगी कामना, बिना आमदनी के ? सेवा कर रही है, तो उसे देना मेरा फर्ज है, चाहती तो वह भी चार पैसे कमा सकती थी, पढ़ी-लिखी है।’’

सबका विरोध सहा था उन्होंने, अन्त तक वही रह गई थी एकमात्र उनकी अपनी।

बाद में लोग आये, बचत का हिसाब हुआ, रजिस्ट्री के कागज देखे गये, सब छत्तीस हो गये।

‘‘तूने तो उनका किया, अब तेरा कौन करेगा, म्युनिसिपल वाले उठायेंगे तुझे तो, जरा भी नहीं समझी कि एक भाई भी है, जिसके पास कोई रोजगार नहीं है। आई.जी. पिता और प्रिसिपल माँ का इकलौता दुलारा बेटा, अब बीबी की कमाई पर जियेगा ?’’ भाई बहू ने खूब लताड़ा था उसे सबके सामने।

‘‘एक ही था तो सेवा के समय मुँह क्यों चुराया ? बीवी की सेवा की तो उसी की कमाई खाय !’’ उसने भी कह दिया था चिल्लाकर।

‘‘तुमने करने कहाँ दिया ? डराकर रखी थी मम्मी जी को, जरा सा उस दिन हलवा क्या दे दिया कितनी लड़ाई की, हाथ पकड़ कर बाहर कर रही थी, कैसे करता कोई दूसरा सेवा टहल,’’ भाई बहू ने रिश्तेदारों के सामने अपने को पाक दामन सिद्ध कर लिया। जो कुछ बचा था, बाँट बंूट कर सब ले गये थे, घर के लिए केस लगाने की धमकी भी दे गये थे।

‘‘अंगुरी में डंसले बा नगिनिया हमरा पिया के बलाइ द....ऽ.....ऽ...!’’ लोक गीत समाप्त हुआ।

हाॅल पूरा भरा हुआ था। कुंभ के मेले का सांस्कृतिक मंच था यह, वह भी तो काॅलेज के जमाने में यहाँ कार्यक्रम प्रस्तुत कर चुकी थी, आज है कि चुपचाप एक सीट पर बैठी है।

गंगा-जमुना की उत्ताल तरंगों के तट पर लगा यह मेला प्रयाग के जनजीवन में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रखता है। दुनियाँ भर के लोग अमृत स्नान करने आते हैं। छोटे बड़े व्यापारी, कलाकार, बाजीगर, साधु-संत, चोर, उचक्के, सब जुट आते हैं, वैसे तो वह गंगा जी के प्रति श्रद्धा रखते हुए भी स्नान के लिए कभी कभी ही आती है, क्योंकि शहर भर की गंदी नालियों का गंगा में संगम वह भूल नहीं पाती, दूर से ही प्रणाम कर लेती है। मेले का सांस्कृतिक मंच उसे अवश्य खींच लिया करता है।

बारह वर्ष पूर्व जब मेला लगा था, तब तो मम्मी पापा जिन्दा थे, तब वह भूतहे घर की मालकिन नहीं थी। भरे पूरे घर की सदस्या थी, भाई की नई-नई शादी हुई थी, बड़ी दीदी अपने पति के साथ यहीं रहा करती थी। मम्मी तरह-तरह के व्यंजन बनाकर खिलातीं, पापा अपने सेवाकालीन प्रसंग सुनाते वह सबकी दुलारी थी, मम्मी उसकी शादी जल्दी बाजी में नहीं करना चाहतीं थीं, अभी जो शरीर भर अंगूर के दाने उगे बैठे हैं वे भी तो न थे। तब की फोटो देखती है तो लगता है वह उसके पहले जन्म की तस्वीर है।

‘‘बस अब चलना चाहिए ! हो गया ! दक्षिण भारत का नंबर है अब, कुछ समझ में नहीं आयेगा। रात भी काफी हो गई है, उसने मोबाईल में समय देखा रात्रि के दस बज रहे थे, गर्मी के मौसम में दस तो यूँ ही बज जाते हैं, तट पर गर्मी का अहसास कम होता है, घर में तो कूलर के बिना एक पल कटना भी मुश्किल ही था। मेले के कारण इस वर्ष बिजली की कटौती नहीं हो रही है, अन्य गरमियों की याद भी त्रासद है। वह उठी थी अपनी सीट से, धीरे-धीरे गेट की ओर बढ़ती, उसके शरीर पर गुलाबी साड़ी थी, बाल छोटे-छोटे ढंग से कटे थे जिनकी लटें एक गाल को लगभग पूरा ढँके हुए थीं। लोक संगीत के बोल अभी भी उसे अभिभूत किये हुए थे।

‘‘मैडम ..! मैडम ! एक्सक्यूज मी, यह आप का तो नहीं ?’’

उसने हठात् पीछे मुड़कर देखा, एक युवक हाथ में उसका मोबाइल लिए तेज-तेज कदमों से उसकी ओर बढ़ रहा था।

‘‘ओह ! यह तो मेरा ही है, आपने बहुत कष्ट उठाया, थैंक्यू....वेरी मच ’’! उसने अपना मोबाइल ले लिया, भूलने की आदत तो बढ़ती ही जा रही है उसकी।

‘‘मैडम सम्हाल कर रखा करे मोबाइल वगैरह, कहीं गलत हाथों में पड़ गया होता तो आप परेशानी में पड़ जातीं।’’ युवक ने अधिकार पूर्वक धन्यवाद स्वीकार किया, और सीख दे डाली।

‘‘जी, जी ख्याल रखूँगी, वैसे जब आपके जैसे ईमानदार यहाँ मौजूद हैं, तब कुछ भी गलत कैसे हो सकता है ? वह गहरे से मुस्करा रही थी, उसने नेत्रों से जैसे युवक का सर्वस्व पी लेना चाहा।

‘‘आपका नाम जान सकता हूँ, मैडम ?’’

‘‘हाँ क्यों नहीं ? मुझे कामना कहते हैं, कामना शर्मा, इसी शहर की रहने वाली हँू। लगे हाथ अपना शुभ नाम भी बता दीजिए !’’

‘‘बन्दे को खेमू कहते हैं खेमराज वर्मा, देवरिया जिले का हूँ, यहाँ कुछ काम धंधे की तलाश में आया हूँ, अभी तो बस कार्यक्रम देखने बैठ गया था।’’ युवक ने सादगी से उत्तर दिया।

‘‘गंगा मइया आपकी मदद करें ! छोटे-मोटे काम तो आप करने से रहे, वर्ना कुछ मदद करती आपकी।’’

‘‘अभी तो फिलहाल पैर रखने की जगह चाहिए यदि आप उतना कर दें तो आगे मैं स्वयं संभाल लूँगा सब कुछ।’’ उसने आभार मानती नजरों से देखा था।

‘‘ठीक है मेरा कार्ड लीजिए, कभी आईये ! सोचते हैं बैठकर।’’ उसने हल्के से कहते हुए आगे कदम बढ़ाया।

‘‘कभी क्यों कामना जी ? मैं कल ही आ रहा हूँ।’’

‘‘कोई जल्दी नहीं है, पहले फोन कर लीजिएगा।’’

घर पहुँच कर भी बहुत देर तक उसे नींद नहीं आई थी, खेमू की सूरत उसकी आँखों के आगे नाच, नाच उठती थी।

‘‘लो भला ! दूसरा होता तो हजार दो हजार बना लेता, ऐसे समय जबकि वह तंग हाल है, काम की तलाश में है, उसने ईमानदारी का परिचय दिया। वह अपनी यादों का घोड़ा उन सभी परिचितों की ओर दौड़ाती रही, जिनसे वह उसके लिए बात कर सकती थी। परिचितों के शहर में वह एक प्रकार से अपरिचित थी सबसे, पापा-मम्मी की जायदाद अकेले हड़पने का आरोप था उसके ऊपर। रिश्तेदार तो बस उसकी दुर्गति देखने की प्रतीक्षा में थे, किससे कहे ? किसके सामने जबान गिराये ? वह सोचती रही, उसने उसे अपनी सहेली के मेडिकल स्टोर में रखवाने की बात सोची, कुछ समय पहले वह बाजार मंे मिली थी, अब तो बाल बच्चों वाली है कभी साथ में पढ़ती थी।

‘‘भैया को दुकान के लिए आदमी चाहिए, ईमानदार टाइप का।’’ उसने कहा था। उसके आने से पहले बात कर लेनी चाहिए, सोमी के भइया से।’’ उसने निश्चय किया तब कहीं उसे नींद आई।

जैसे-तैसे रात कटी थी। उसने अपनी गारंटी दी थी सोमी के भईया को। वही तो जानती थी न कि खेमू कैसा आदमी है।

वह दस बजे ही आ पहुँचा था, अनजानी बेचैनी ने उसे घेर रखा था, महरी से कहकर बैठक अच्छी तरह साफ करवाया था। नाश्ते के लिए समझ नहीं पा रही थी कि उसके लिये क्या बनवा ले, जब से अकेली हो गई थी, खाने-पीने में कोई रंग-ढंग नहीं था। कभी कुछ खाना हुआ वो बाहर से ही खाकर आ जाती, कौन दस जगह की चीज एक जगह करे, एक मुर्गी के लिए ? वही आज भी हो पाया, उसने मिठाई, बिस्कुट, समोसे मंगवा लिए थे।

वह आया था, एकदम अपने जैसा, कोई बनावट नहीं, कोई तकल्लुफ नहीं, कोई झिझक नहीं, जाने की कोई जल्दी नहीं, मेडिकल स्टोर में 1500 रू. माहवार पर काम मिल गया था उसे।

‘‘इतने में तो गुजर मुश्किल है, कुछ और करना पड़ेगा आपको। ‘‘हाँ, रहने के लिए घर भी तो चाहिए।’’

वह सोच में पड़ गई थी।

‘‘आप चिन्ता न करें, सब हो जायेगा, आपने इतना बहुत किया मेरे लिए।’’ वह कृतज्ञ निगाहों से उसे देख रहा था।

‘‘तो बस कल से काम शुरू कर दीजिए।’’ उसने जैसे बात खत्म की। उसका संकेत समझ कर खेमू भी उठकर चला गया था।

परन्तु बात तो शुरू ही हुई थी तब, उसने करीब हफ्ते भर बाद खेमू को एक दुकान के बरामदे में रात गुजारते देखा था।

‘‘इतना बड़ा घर है, दे देते हैं बाहर वाला कमरा, सहारा ही रहेगा।’’ उसने सोचा था ।

‘‘लोग क्या कहेंगे, एक जवान औरत, एक जवान मर्द के साथ एक ही घर में रहेगी तो ?’’ प्रश्न उठा था, उसके मन में।

‘‘कोई सुख-दुःख में पूछ तो नहीं रहा है जिसे जो मन आये कहे, मैं उसे कमरा दे रही हूँ।’’ उसने रास्ते में पक्का कर लिया था। दूसरे दिन उसे बुला लिया था।

‘‘आप यहीं रहें, हमारे सर्वेन्ट क्वार्टर में 50 रू. महीना किराया दे दिया करें। उसने उसे कुछ कहने का अवसर नहीं दिया था।

‘‘इतने सुन्दर घर को लोग भूतहा कैसे कहने लगे।’’ उसने पूछा था एक दिन।

‘‘अरे मत पूछिये कहने वालों की बात ! एक दिन रात को पेड़ पर से कुछ गिरा आँगन में, वह देख रहे हैं ? आम, नारियल के पेड़, सब पापा मम्मी के लगाये हुए हैं, इतना बड़ा बगीचा बड़ी मुश्किल से तैयार किया था, उन्होंने।’’

‘‘हाँ तो क्या गिरा ?’’

‘‘ कोई पक्षी लाया होगा, कुछ माँस जैसा था, बस दीदी चिल्ला पडीं हमारे घर तो माँस की वर्षा हो रही है। एक बार संयोग से भाई का लड़का. यहाँ जब तक रहा बीमार रहा, अपने घर जाकर ठीक हो गया। यही सब देख कर लोगों ने इसे बदनाम कर दिया, मैं तो अकेली रहती हूँ, कभी भूत-वूत नहीं देखा।’’ उसने सहज ढंग से बताया था।

वह उसके लिए फल-सब्जियाँ लाने लगा, वह उसके लिए खाना बनाने लगी। सुबह शाम का साथ हो गया।

‘‘आपकी शादी हो गई ?’’ एक दिन पूछा था उसने।

‘‘शादी कैसे होती ? झूठे मुकदमें में फँसाकर सात साल की जेल करवा दिया था दुश्मनों ने, इसीलिए तो भागा देवरिया से ! वहाँ रहूँगा तो उन्हें देखकर क्रोध आता रहेगा, आप को बता दूं, मैं झगड़े टंटे से कोसो दूर रहने वाला आदमी हूँ।’’ उसने अपने जेल जाने की बात बड़ी साफगोई से स्वीकार की।

‘‘पता नहीं सचमुच तो इसने किसी को मारने की कोशिश नहीं की ? दूर का मामला, कहीं धोखा न हो !’’ प्रश्न उठते थे दब जाते थे उत्तर सुनकर।

‘‘धोखेबाज होता तो बताता क्यों ? मैं जांचने परखने जाती क्या उसके गाँव घर ?’’ पापा पुुलिस में डी.आई.जी. थे, बताया करते थे, करीब 25 प्रतिशत निर्दोष लोग सजा काटते हैं। वैसे ही भाग्य का मारा यह भी है।

‘‘और आपने शादी क्यों नहीं की ?’’ उसने पूछा था संकोच के साथ।

‘‘मुझे किसी ने पसंद नहीं किया !’’ जमाने भर का दर्द उभर आया उसके स्वर में।

‘‘आश्चर्य है ! आपके समान सर्वगुण सम्पन्न महिला को कैसे नापसंद किया होगा किसी ने ?’’ वह हक्का-बक्का हो गया था।

‘‘ये हंै न ? मेरे शरीर पर ! देखिये !’’ उसने अप्रत्याशित ढंग से अपने गालों से अपनी लटें हटा दी, एक पल को वह काठ हो गया, किशमिश के दानों जितने ढेरों लाल मस्से, भरे थे उस तरफ के गाल पर ।

‘‘देखा न मेरे दुर्भाग्य को ? ऐसे और बहुत मस्से पूरे शरीर पर हैं, उम्र के साथ साथ बढ़ रहे है।ं’’ उसने अपने पैर उघार कर दिखाये। उसके जिस्म में ठंडी सिरहन दौड़ गई थी, वह संभल गया था, एक पल में ही। ...... ‘‘ये ...ऽ....ऽ ये क्या हंै, इन पर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया फिर मस्से किसके शरीर पर नहीं होते ? मेरे भी हैं फर्क यही है कि ये कुछ बड़े और अधिक हैं परन्तु इससे आपके सारे गुण व्यर्थ ंतो नहीं हो जाते ?’’ उसने सहज होने की कोशिश की थी।

‘‘लोग शरीर को पहले देखते हंै, दिल को तो शायद कभी देखते ही नहीं।’’ दुनिया भर की पीड़ा उभर आई थी उसके स्वर में।

‘‘ऐसा नहीं है कामना जी ! यदि आप स्वीकार करें तो मैं आप से शादी करने को तैयार हूँ।’’ उसने झटके से कह दिया था।

‘‘रहने दीजिए खेमराज जी, मैं आपका बहुत आदर करती हूँ ! नहीं चाहती कि आपकी जिन्दगी मेरे साथ नर्क हो जाये, वैसे ही आपने अब तक कम दुःख नहीं भोगे हैं।’’ वह अप्रभावित रही।

‘‘रहने दीजिए, रहने दीजिए, आप शायद एक जेल काटे व्यक्ति का भरोसा नहीं कर सकतीं, ठीक भी है अजनबी पर विश्वास क्यों करे कोई ?’’ वह उदास हो गया।

उसकी मृतप्राय आशा जाग उठी थी, उसे लगा था भगवान् ने उसे एक साथी दे दिया है। सबकी बद्दुआ व्यर्थ हो गई है। कोई है उसकी मिट्टी की इज्जत करने वाला, उसकी माँग भी सज सकती है सिन्दुर की लाली से। उसके मस्सों के साथ भी कोई उसे स्वीकार कर सकता है।’’

उन्होंने कोर्ट में शादी कर ली थी। बहुत खुश थी वह। अपनी रेसीपी की काॅपी खोज कर निकाल ली थी, रोज नई डिस, तारीफ ही तारीफ, उसने खेमू को मेडिकल स्टोर में काम करने से मना कर दिया था, डी. आई. जी. साहब का दामाद, पन्द्रह सौ रूपल्ली में 12 घंटे काम करे ? यह सुन कर कौन अच्छा कहेगा ?’’

‘‘बैंक से रूपये निकालकर कोई व्यापार कर लेते हैं, यदि तुम्हारी सहमति हो।’’ घर बैठे-बैठे ऊब गया था खेमू, उसे भी 24 घंटे की उसकी उपस्थिति भारी लगने लगी थी। नौकरी तो बस वही मिलेगी हजार दो हजार की। मम्मी ने छः लाख रूपये जमा कर दिये थे उसके नाम से, उसी के ब्याज से चल रही थी जिन्दगी।

’’छः लाख रूपयों के मात्र पाँच हजार, चार सौ रूपये ब्याज ! इतने रूपये व्यापार में लगे तो कई गुना अधिक लाभ होगा।’’ उसे अच्छा लगा था पति का विचार।

बस खुल गई थी दुकान रंग पेन्ट की, हाँ उन्हे अपना खेत भी बेचना पड़ा था, पगड़ी भरने के लिए। आमदनी बढ़ी थी, घर अच्छी तरह चल रहा था।

‘‘कामना ! यदि कहो तो इस घर को निकाल कर नया बनवा लेते हैं। यह पुराने जमाने का बना है जगह-जगह टूट-फूट गया है। मरम्मत में ही कई लाख लगेंगे। फिर हमें इतने बड़े घर की क्या जरूरत है, दो प्राणी के लिए दो कमरे पर्याप्त होते हैं। घर में वैसे मुझे भी कुछ न कुछ वास्तु दोष लगता है, देखो साल भर हुए हमारे बीच कोई नया मेहमान नहीं आया।’’ उसने उसके बालों मंे हाथ फेरते हुए कहा था।

‘‘यह बात ठीक नहीं, मेरे मम्मी पापा की निशानी है यह घर, रूपये अभी नहीं हंै तो क्या कभी नहीं होंगे ? बाद में ठीक करा लेंगे।’’ उसने हिम्मत करके उसकी बात काटी थी। वह ग्राहक ले आया, जानता था, कामना वही करेगी जो वह कहेगा।

उतने बड़े घर से वे किराये के दो कमरे के मकान में आ गये थे। यह घर दुकान के पास ही था, खेमू खुश था, घर दुकान पास-पास है, वह दोनों सम्हाल सकता है।

वह बुझ सी गई थी, अपने घर में महारानी की तरह विचरा करती थी, किराये का घर उसे कैद खाने जैसा लगता था।

‘‘तुम किस चिन्ता में पड़ी हो कामना ? हम बहुत जल्दी जमीन खरीद कर उस पर नये डिजाईन का घर बनवायेंगे। घर के पच्चीस लाख बैंक में जमा हैं हमारे ज्वाइन्ट खाते में। हड़बड़ाओ मत, जरा अच्छे लोकेशन में जमीन खरीदेंगे।’’ वह समझाता।

उसे लगता मम्मी, पापा अपने घर के लिए आँसू बहा रहे हैं।

‘‘यह लो दवा खा लो, डाॅक्टर से लिखवाकर लाया हूँ, कल चलो दिखा देते हैं। तुम्हारी भूख तो जैसे एकदम मर गई है, मुझे तुम्हारी बड़ी चिन्ता है !’’ खेमू को समय नही मिल रहा था, डाॅक्टर के पास जाने के लिए,दवाईयाँ थोड़े समय असर करतीं थीं फिर ज्वर चढ़ आता, एक आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ उसके जिस्म में, उसके मस्से, सूख कर झरने लगे।

‘‘बस आज चलो अस्पताल ! दुकान बाद में जाऊँगा, वह आॅटो रिक्शे में बैठा कर उस दिन कामना को अस्पताल ले गया था। जाँच हुई थी, न जाने डाॅक्टर से क्या कहा उसने? डाॅक्टर ने क्या समझाया उसे, उसकी निगाहों में कुछ अजनबीपन आ गया था। वह निगाहें चुरा रहा था उससे।

‘‘देखी कहीं जमीन ?’’ उसने पूछा था।

‘‘कई जगह बात चलाई है, जरा तुम ठीक हो जाओ, फिर भिड़ता हूँ ।’’ उसने अपने हाथ से खाना खिलाया था उसे।

दूसरे दिन हड़बड़ाया हुआ आया था दुकान से, ‘‘मुझे तुरन्त घर जाना होगा, माँ का फोन आया है वह बहुत बीमार है।’’ वह अपने कपड़े लत्ते एक बैग में ठूंस रहा था।

‘‘मुझे छोड़ कर चले जाओगे ?’’ तुम्हारे सिवा मेरा कौन है इस संसार में।’’ उसने कातर दृष्टि से उसे देखा, हाथ पकड़ कर रोकना चाहा।

‘‘वह मेरी माँ है तुम बीवी, माँ का हक पहले है, तुम्हारे पास मेरा मोबाईल नंबर है, मुझे फोन करती रहना, मैं माँ को देखकर जल्दी लौटता हूँ, वह दरवाजा बन्द करता गया था बाहर से।

बड़ी बेचैनी होने लगी थी, जी मिचलाने लगा था, वह छटपटाने लगी।

‘‘उसे रोक लेती हूँ, लगता है बचूँगी नहीं।’’ मोबाइल के पास ही बैंक की पासबुक रखी थी, उसने अनायास खोल कर देखा। उसमे दो सौ पचास रू. बैलेन्स लिखा था। ’’अरे ! इसनेे सारा रूपया निकाल कर क्या किया ? एक बार चर्चा भी नहीं की। ठहरो फोन करके पूछती हूँ !" किसी प्रकार नंबर दबाया, उधर से उत्तर आय। ’’इस नंबर की सेवायें स्थायी रूप समाप्त कर दी गई हैं।’’


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