जब अंध विश्वास के कारण जान पर बन आयी
जब अंध विश्वास के कारण जान पर बन आयी
"ये क्या बेटा, तुम अभी तक भी तैयार नहीं हुई ? अगर देर से पहुंचेंगे तो पीछे ही बैठना पड़ेगा। लोग तो कब से ही आने लग गए होंगे। सबको बाबाजी के हाथ से प्रसाद चाहिए होता है। " सुमित्राजी अपनी बेटी तपस्या को बोल रही थीं।
"मम्मी, बाबाजी के हाथ का या उनका जूठा ? पता नहीं सब लोग कैसे उनके मुँह से निकले हुए लड्डू को खा लेते हैं ? यह कौन सा प्रसाद देने का तरीका है। मुझे तो उस लड्डू को देखते ही घिन्न सी आती है, उस पर बाबाजी की लार भी लगी रहती है। ऐसे तो आप शांति दीदी को रसोई में घुसने तक नहीं देते।" तपस्या ने कहा।
"चुप कर, साक्षात चमत्कारी बाबाजी हैं, उनके प्रसाद को खाकर कितने ही मरीज ठीक हो गए हैं। तुम आजकल के बच्चे हर बात में तर्क करने लग जाते हो। ऐसे पहुंचे हुए संत महात्मा की तुलना अपनी कामवाली शांति से कर रही हो। नीची जात की तो में रसोई में छोड़ अपने घर में भी न घुसने देती, लेकिन एक तो पैसे थोड़े कम लेती है और दूसरा उसका काम भी ठीक है। रसोई में घुसने दिया तो धर्म नष्ट नहीं हो जाएगा। " सुमित्राजी ने डांटते हुए कहा।
"मम्मी आपके बाबाजी और शांति दीदी दोनों ही इंसान है और दोनों को ही भगवान ने बनाया है। एक का तो जूठा भी खा लोगी और दूसरे को रसोई तक में घुसने नहीं दोगी। धर्म है या पाखंड। अब कोरोना में एक तो वहां भीड़ में जाना ही क्यों है और दूसरा किसी के मुँह का जूठा मैं तो नहीं खाने वाली।" तपस्या ने समझाते हुए कहा।
"तुम बच्चों का पढ़ने -लिखने से दिमाग खराब हो जाता है। चार किताबें क्या पढ़ ली अपने आपको विदुषी मान रही है। कोरोना न हो, इसीलिए तो उनका प्रसाद चाहिए। ज्यादा बहस नहीं चाहिए मुझे, चुपचाप तैयार हो जा। "सुमित्राजी ने कहा।
"भगवान इस लड़की को सद्बुद्धि देना। बाबाजी इसकी बातों के लिए इसे माफ़ कर देना। अभी नादान है। " सुमित्राजी बुदबुदाई।
"भगवान मेरी मम्मी को आस्था और अंधविश्वास में फर्क करना सिखा देना" तपस्या बुदबुदा रही थी।
तपस्या न चाहते हुए भी मम्मी के साथ बाबाजी के सत्संग में गयी। 100 से ज्यादा लोग सभी नियमों और कानूनों को ताक पर रखकर वहां मौजूद थे। और लगभग रोज़ ही 100 -150 भक्त कोरोना से बचने के लिए बाबाजी से प्रसाद प्राप्त करने आ रहे थे।
बाबाजी जैसे ही मंच पर पहुंचे, भक्तों की जय -जयकार शुरू हो गयी। बाबाजी ने सब भक्तों को शांत करते हुए कहा कि, "आप सभी एक बहुत बुरे दौर से गुजर रहे हैं। लेकिन फ़िक्र मत कीजिये, आपके बाबाजी आपके साथ हैं। हमने ईश्वर से प्रार्थना की है कि हमारा प्रसाद ग्रहण करने वाले भक्तों तक कोरोना को न पहुंचने दे। यकीन मानिये कि कोरोना आप का बाल तक बांका नहीं कर पायेगा। आपको हॉस्पिटल और डॉक्टर्स के घर भरने की भी कोई जरूरत नहीं है। बस अभी हम लड्डू ग्रहण करके आप सभी को प्रसाद वितरित करेंगे। आप सभी इस बात से तो परिचित हैं ही यदि ईश्वर को प्रतिदान न दें तो ईश्वर की कृपा प्राप्त नहीं होती। अतः ज्यादा से ज्यादा प्रतिदान कर, कोरोना से बचने के लिए प्रसाद प्राप्त करें। "
बाबाजी ने बड़े प्रेम से एक लड्डू अपने मुँह में डालकर बाहर निकाला। ऐसा १५-२० लड्डओं के साथ किया गया और उन १५-२० लड्डओं को बाकी के प्रसाद में मिलाकर भक्तों के बीच वितरण के लिए दे दिया। जो भक्त जितना ज्यादा प्रतिदान दे रहे थे, उन्हें उतना ही ज्यादा प्रसाद दिया जा रहा था। तपस्या की मम्मी ने १००००/- देकर 10 लड्डू प्राप्त कर लिए थे। उन्होंने वही पर प्रसाद ग्रहण किया और एक लड्डू तपस्या को भी खाने को दिया।
तपस्या ने नज़र बचाकर वह लड्डू वहीं फेंक दिया। उसे बाबाजी की लार से सने लड्डू को खाने में कोई रुचि नहीं थी। तपस्या और सुमित्राजी बाबाजी का कोरोना से रक्षा करने वाला कवच लेकर अपने घर आ गए। सुमित्राजी ने वह कवच अपने पड़ोसी गीताजी को भी दे दिया।
1 सप्ताह बाद बाबाजी की मृत्यु की खबर सुमित्राजी को मिली। सुमित्राजी अपने बाबाजी की मृत्यु की खबर सुनकर सन्न रह गयी थी। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हो सकता है। बाबाजी के मृत्यु के कारण को जानने के बाद तो सुमित्राजी का पूरा परिवार सकते में आ गया था। बाबाजी की मृत्यु कोरोना से हुई थी। अब सुमित्राजी सहित उनका परिवार तनाव में था कि कहीं उन्हें भी तो कोरोना न हो गया हो। रोज़ ही बाबाजी के भक्तों के कोरोना पॉजिटिव होने के खबरें मिल रही थी। कुछ भक्तों की तो बाबाजी के प्रति इतनी आस्था थी कि वे भी कोरोना पॉजिटिव होकर बाबाजी के पास ही पहुँच गए थे।
गीताजी भी सुमित्राजी से नाराज़ हो गयी थी। दोनों परिवारों ने एक सप्ताह का समय राम -राम कहकर निकाला। प्रसाद ग्रहण करने के १ सप्ताह बाद बाबाजी की मृत्यु हुई थी, अतः 2 सप्ताह मिलाकर कुल 14 दिन हो गए थे। भगवान की कृपा से उनके परिवार में किसी को कोरोना संक्रमण नहीं हुआ। लेकिन उस दिन के बाद से सुमित्राजी ने प्रण ले लिया था कि आस्था के नाम पर ढोंगी बाबाओं से बचकर रहेंगी। अपनी बेटी तपस्या की तार्किक बातों को भी महत्व देंगी।
दोस्तों यह कहानी एक सत्य घटना से प्रेरित है। हम आस्था रखें, लेकिन आस्था के साथ -साथ कभी -कभी अपने दिमाग का भी थोड़ा सा इस्तेमाल करें। अगर भगवान को हमारा सवाल उठाना पसंद नहीं होता तो, वह शायद हमें दिमाग देते ही नहीं।