वह खौफनाक रात
वह खौफनाक रात
भीषण गर्मी के बाद जब आकाश पर काले-काले बादल घुमड़ते हैं, जोरों से उनकी गड़गड़ाहट और बिजली की कड़कड़ाहट सुनाई देती है, तो लोगों के दिल की धड़कनें तेज हो जाती है ! कुछ खुशी से भी, क्योकिं अब उमस भरी गर्मी से निज़ात मिलेगी। गीली धरती पर किसान हल चलाना शुरु करेंगे।
मगर इन मेघ और बारिश के बीच कुछ यादें ऐसी भी होती है, जो दिल में खौफ पैदा करती है।
बात कुछ साल पहले की है। रीना मेरी खास सहेलियों में से एक थी, जो मेरे पड़ोस में ही रहती थी। उसकी एकमात्र बेटी "तीसा" को मैं भी अपनी बेटी समान मानती थी। वह भी आंटी-आंटी करती हुई बेहाल रहती, कभी मुवी देखने, कभी पिकनिक पर, और अनेकों दफा मेरे साथ शेरों-शायरी के सम्मेलन में गई थी। मैं छुट्टी के दिन कहीं भी जाती, तो पता नहीं तीसा भी कहाँ से आ धमकती ! "आंटी मैं भी जाऊंगी !
बाहर के लोग तो उसे मेरी ही बेटी समझते।
उस दिन भी रविवार था, मुझे दो व्याख्यान देने जाना था। सुबह- सुबह "तीसा" अंदर आते ही बोली "आंटी आप आज जा रही हो ?
मैंने उसे टालते हुए कहा, "आज मौसम भी ठीक नहीं है, ड्राइवर भी छुट्टी पर गया है, तू मेरे साथ नहीं जाएगी !
मगर मेरी उसके सामने एक न चली और हम दोनों बस से अपने गन्तवय की ओर चले। जैसे कि उम्मीद थी, घनघोर वर्षा हुई। सम्मेलन समाप्त होने से कुछ पहले ही मैं अनुमति लेकर वहाँ से रवाना हो गई।
रास्ते में घुटनों तक पानी भरा हुआ था। तीसा मेरे साथ थी इसलिए मैं कुछ चिन्तित भी थी।
हम दोनों किसी तरह बस स्टैंड पहुंच गए मगर बस न मिली। कुछ एक लोग थे जो धीरे- धीरे अपने रास्ते चले गए।
बारिश रुक- रुक कर जारी थी। मैंने 'तीसा' के घर फोन लगाया, पर नेटवर्क भी दगा दे गई थी। रात गहरी होती जा रही थी। मैंने बस का और इंतजार करना मुनासिब न समझा।
मैंने सोचा कुछ दूर पैदल चलकर अगर ऑटो वगैरह मिल जाए तो रिजर्व कर लूंगी।
मुझे खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा था क्योंकि मैं' ' तीसा ' को अपने साथ लायी थी। रास्ते में कारें पानी उछालती हुई सरपट दौड़ी जा रही थी। किसी अनजान कार को रोकने का साहस मुझमें न था।
कुछ दूर चलते- चलते अचानक सामने की ओर खोमचे वाले के खाली स्टॉल पर कुछ लोग ठहाके लगाते हुए और गाना गाते हुए नजर आये। उनके ठहाको की आवाज से मेरी रूह अंदर तक कांप गयी थी। वे लोग शराब भी पी रहे थे।
मैं ' तीसा' के साथ उनके सामने से गुजरना उचित न समझा। शायद उनमें से किसी की नजर हम पर पड़ गई थी। सब पीछे मुड़कर देखने लगे थे।
हम दोनों जल्दी- जल्दी बगल के एक गली में प्रवेश कर गये।
अंधेरे में हमने अनुभव किया कि हमारे पीछे कोई है। बीच- बीच में मोबाइल की रोशनी चमक उठती। वो लोग पीछे गाली बकते हुए आ रहे थे। भीतर ही भीतर मैं कांप रही थी।
तीसा का हाथ पकड़े अत्यधिक तेजी से चल रही थी। किधर जाऊँ ! किससे मदद माँगू ! कुछ समझ नहीं पा रही थी।
अचानक अत्यंत तेजी से बारिश होने लगी। हम दोनों एक क्षण के लिए भी रूके नहीं, करीब-करीब दौड़ते हुए आगे बढ़ते रहे।
उस बारिश में रास्ता, मकान, गली ,चौराहे कुछ भी नहीं सुझ रहा था। हम दोनों केवल आगे बढ़ते चले गए। अचानक बिजली कड़की तो मुझे एक"चिलड्ररेन पार्क" का बोर्ड दिखाई दिया। हम दोनों वहीं रुक गये।
अब हमारे आगे पीछे कोई न था। शायद वे शराबी, रास्ते के उफनती हुई बारिश की पानी में अपना संतुलन बनाए नहीं रख पाये होंगे।
पार्क का गेट बंद था। तीसा गेट के अंदर कूद गई। मैं बहुत कोशिश कर तीसा की सहायता से अंदर कूद पायी थी।
अंदर एक घने वृक्ष के नीचे जाकर गीली मिट्टी पर हम बैठ गए। फिर मैंने अपने बैग से मोबाइल निकालना चाहा तो पाया कि मेरे हाथ खाली हैं। मेरा बैग हाथ से कब गिरा, कुछ पता ही नहीं चला।
तीसा के घरवाले परेशान होंगे ! मगर मैं कुछ कर भी तो नहीं कर सकती थी। "तीसा "के साहस की दाद देनी पड़ेगी !, बच्ची उस कठिन परिस्थिति में घबराई नहीं थी।
रात्रि के बचे हुए प्रहार हमने पेड़ के नीचे ही काटा। तीसा का सिर अपने गोद पर रखकर बिना पलके झपकायें मैं बैठी रही। बारिश थम चुकी थी।
कुछ उजाला नजर आते ही हम पार्क से निकल कर मेन रोड पर आकर एक ऑटो रिजर्व कर लिया।
तीसा के परिवार वाले घर से बाहर चिन्तित खड़े थे।
सारी घटना सुनकर तीसा के पिता ने कहा "भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि आप दोनों सकुशल हैं।
वैसे उस घटना के बाद तीसा ने मेरे साथ जाने की जिद फिर कभी नहीं की और मैं जिन्दगी भर बरसात की उस रात को भूल नहीं सकती।