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Madan lal Rana

Tragedy

4.3  

Madan lal Rana

Tragedy

मां

मां

3 mins
436


कल्याणी जल्दी से जल्दी घर का सारा काम खत्म कर मेले देखने जाना चाहती है पर काम है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेता क्योंकि एक काम खत्म होने पहले ही मां दूसरा काम दे जाती है। कपड़े धोने का काम खत्म होता है तो बर्तन मांजने का काम और बर्तन मांजने का काम खत्म होता है तो झाड़ू-पोंछा लगाने का काम।बेचारी तेरह -चौदह साल की कल्याणी को सांस लेने तक की फुर्सत नहीं मिल पाती।उपर से सौतेली मां के जले-भुने ताने।

 "अरे आलसी कहीं की जरा सा काम में कितनी देर लगाएगी.?अभी बहुत सारे काम पड़े हैं जल्दी-जल्दी कर। मेले घूमने जाना है कि नहीं.?"

 "हां मां... क्यों नहीं जाऊंगी.?? बस हो गया अब मात्र दो ही बर्तन बचे हुए हैं।"

बिना मां की बात का बुरा माने कल्याणी सफाई देते हुए कहती हैं फिर अपने काम में लग जाती है।और उसकी सौतेली मां एक कुटिल मुस्कान बिखेरकर चली जाती है।भोली-भाली कल्याणी उसकी कुटिल मुस्कान से बिल्कुल अनभिज्ञ है या यूं कहूं तो और बेहतर होगा कि कल्याणी बचपन से ही उसके कुटिल चरित्र से अनजान रही है।

 मेले जाने की बात कहना तो मात्र एक बहाना था वह उसे कहीं नहीं ले जा रही थी।ऐसा तो वो इसलिए कह रही थी कि मेले के लालच में कल्याणी जल्दी से सारा काम निपटा दे तो वह निश्चिंत होकर अपने बच्चों के साथ दशहरे का मेला घूमने जा सके।उस मासूम हृदय को छलना उसकी भावनाओं से खेलना,यही तो करती आयी है वो बेचारी बिन मां की बच्ची के साथ उसके बचपने से ही।

 वाह रे औरत के रूप..!सौतेली ही सही पर एक मां होकर भी वह अनाथ कल्याणी की मां ना बन सकी पर सौतेली होकर भी मासूूम कल्याणी ने उसकी कोख से जन्मी बेटी से भी बढ़कर प्रमाणित कर दिखाया।

कल्याणी ने कभी उसके तिरस्कार का विरोध नहीं किया।हमेशा उसके नफरत को सर आंखों पर रखकर उसका कहा माना। जब जो काम बताया खुशी-खुशी किया।जो दिया खा लिया,जो दिया पहन लिया।उसने सौतेली मां को कभी सौतेली नहीं बल्कि हमेशा सगी मां से भी बढ़कर माना ।उसके दुख को सदा अपना दुख समझा।उसकी परेशानी को अपनी परेशानी मानकर चला।पर हाय री किस्मत..!उसकी सौतेली मां को कभी उसकी इच्छाई नहीं दिखाई दी।हमेशा उसमें उसे बुराई ही बुराई नजर आयी। हमेशा उसेे ताने पे ताने देती रही,उसके साथ छल करती रही।और आज दशहरे जैसे त्योहार पर भी वह यही करने जा रही थी,कल्याणी के साथ पहले की तरह छल.!!!

 कल्याणी के अंदर मेले घूमने जाने का उमंग भरा हुआ था क्योंकि खुद मां ने जो कहा था।काम खत्म कर वह स्टोर रूम में गयी जहां वह सोती थी।उसने अपना छोटा सा संदूक खोला और अपने दशहरे के कपड़े निकाल कर देखने लगी जो उसके पिताजी ने मां के विरोध करने पर भी उसेे ला दिये थे। मन ही मन खुश होते हुए वह सोचने लगी...आज वह इसे पहनेगी तो कितनी सुन्दर दिखने लगेगी। पिताजी ने भी तो कहा था कि "इसे पहनकर तू बिल्कुल परी जैसी दिखेगी मेरी बच्ची"।वह मन ही मन झूम उठी पर अगले ही पल उसकी खुशियों पर कुठाराघात हुआ। मां ने चीखकर उसे बुलाया---

"कल्याणी कहां मर गयी..?

"आयी मां.!!!"---अपना सलवार सूट हाथ में पकड़े वह दौड़ी बाहरआयी तो देखा। बिल्कुल नये और चमकीले कपड़े पहने अपने दोनों बच्चों के साथ वह बरामदे में खड़ी थी।कल्याणी ने अनुमान लगाया शायद वह मेले घूमने जा रही थी।पर बगैर मुझे साथ लिए.?मां ने तो वादा किया था कि उसे भी साथ ले जाएगी पर मुझे छोड़कर क्यों जा रही है.? 

 माजरा समझ में आते ही उसका खिला-खिला सा चेहरा अचानक किसी कुचले फूल की तरह हो गया। फिर अगले ही पल मां का फरमान पिघले शीशे की तरह उसके कानों में उतरा--- "तू कहीं नहीं जा रही मेले वेले घूमने।तेरे पिताजी आएंगे बाजार से तब उनके साथ जाना।तब तक घर पर ही रहना कहीं जाना मत समझी।

प्रत्युत्तर में कल्याणी कुछ नहीं बोली बस केवल सर हिलाकर रह गयी और हाथ में अपने दशहरे के कपड़ों को पकड़े अपने विस्फारित नेत्रों से उन तीनों की मेेेले जाते देखती रही।


 


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