Madan lal Rana

Others

4.0  

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नुकीले आचरण

नुकीले आचरण

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हर किसी को इस दुनिया में जीने के लिए ईश्वर ने बराबर का हक दिया है। अब चाहे कोई अमीर हो या गरीब हो या फिर हो कोई राह चलता फकीर हो।सभी यहां अपने-अपने प्रारब्ध से जीवनयापन करते हैं। ना ही किसी को किसी की रईसी से जलन होनी चाहिए ना ही किसी की ग़रीबी पर हंसना चाहिए।यह सब संसार चलाने वाले पर निर्भर करता है कि वह किसे यहां सुख से जीने देना चाहता है और किसे दुख से।ये अलग बात है कि कुछ कर्मठ लोग अपने कर्मों से कुछ हद तक परिस्थितियों को अपने वश में कर लेते हैं पर ज्यादातर लोग तो अपने भाग्य का ही रोना रोते पाया गया है।और ये सच भी है।

     हम अपनी हिम्मत और मेहनत से कुछ क्षण के लिए वर्तमान परिस्थितियों को तो बदल सकते हैं पर हमेशा के लिए अपने भाग्य या दुर्भाग्य को नहीं बदल सकते। यह सर्वकालिक सत्यापित और मान्य कटु सत्य है पर कुछ हठी किस्म के लोग इस बात को मानने से इंकार करते हैं।

इन्हीं खुली आंखों से देखते ही देखते कितनों को करोड़पति से रोडपति और रोडपति को करोड़पति होते देखा गया है फिर भी ये दंभी मन है कि मानता ही नहीं। 

 हठी,दम्भी,स्वभिमानी,अहंकारी इन्हीं सभी अमानुषिक उपमाओं से सुशोभित एक प्रसिद्ध व्यवसाई सत्यनारायण साव का भी यही हश्र हुआ।

एक समय था जब उनके राशन संबंधित थोक भंडार से ग्राहकों की भीड़ हटाये नहीं हटती थी।आज वहीं कोई भी ग्राहक जाने से कतराते हैं। अपनी गद्दी पर बैठा वो दुकान के दरवाजे की तरफ नजरें गड़ाये टुकुर-टुकुर ताकता रहता है और ग्राहक दूर से ही उसे देखते हुए निकल जाते हैं।उसे अंदर तक निराशा होती है और अपने किये पर पछतावा भी मगर --

 ‌।  "आगे दिन पाछे गये, हरि से किया ना हेत।"

"अब पछताये होत क्या,जब चिड़िया चुग गयी ‌‌ खेत।।"  

जब उसकी चलती थी उसने किसी भी ग्राहक के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया।ना ही अपने स्टाफ के साथ।  

      अब प्रतिदिन निराश अकेले बैठा रहता ग्राहकों की आस लगाये।एक भी स्टाफ उसके साथ नहीं क्योंकि सभी नौकर और कर्मचारी वर्षों पहले दुकान से उसकी नौकरी छोड़कर जा चुके थे। यहां तक कि उसके अपने बेटे भी श्मशान समान दुकान की दहलीज पार करना नहीं चाहते थे क्योंकि अब वहां बचा ही क्या था। दुकान के नाम पर टूटे-फूटे फर्नीचर, दो-तीन बोरी अनाज और जल्दी से जल्दी उसे निपटने में लगे दर्जनों चूहे।जिसे निरंतर हड़का-हड़काकर भगाने में ही अपना अधिकांश समय व्यतीत करता था अभूतपूर्व व्यवसाई सत्यनारायण साव।  

उसके घर की स्थिति भी दयनीय हो चुकी थी। जहां रोज घी में चुपड़ी रोटियां खायी जाती थीं।आज मामूली दाल रोटी के भी लाले पड़े थे।दिन रात उसे पत्नी बेटे और पतोहुओं के ताने सुनने पड़ते थे।एक दिन उसने तंग आकर फ़ैसला लिया कि वह घर ही नहीं जाएगा और सचमुच घर जाना छोड़ दिया।घर वालों ने भी सोचा कि चलो बला टली।

     उधर उनके बेटे सहित परिवार वाले जैसे तैसे दिन गुजारने लगे तो इधर सत्यनारायण बनिये ने भी अगल-बगल के नास्ते के दुकानदारों से उधारी मांग-मांग कर अपना पेट भरना शुरू कर दिया। अगल-बगल के लोगों से भी उसकी हालत छुपी नहीं थी फिर भी उस पर तरह खाकर उसे कुछ ना कुछ खिलाते रहे।पर आखिर कब तक कोई उसपर तरह का सकता था। धीरे-धीरे उन लोगों ने अपने हाथ जो लिए।अब बनिये के लिए खुलकर भीख मांगने के अलावा और कोई रास्ता ना बचा था। वह वही करने लगा। बाजार में सब उसे पहचानते थे।नामी बनियान जो ठहरा।यह सोचकर कि बुरे दिन किसी के भी आ सकते हैं लोग कुछ ना कुछ खाने को दे दिया करने लगे।भूख और बदहाली धीरे-धीरे बनियें की स्थिति एकदम कमजोर और अर्धविक्षिप्त सी हो गयी और एक दिन लोगों ने उसे सड़क किनारे गिरा हुआ पाया मुर्छित अवस्था में। लोगों की भीड़ इकट्ठी थी और आपस में कानाफूसी कर रहे थे---

"अरे..! यह तो वही बनिया है।इसकी तो बहुत चलती थी भाई।कैसे हो गयी इसकी यह दशा.???"


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