Madan lal Rana

Comedy

3.0  

Madan lal Rana

Comedy

महंगाई और रजाई

महंगाई और रजाई

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    "तोशक बनवा लो तकिया बनवा लो......नयी पुरानी जैसी भी हो रजाई धुनवा लो"

     मैं अपने कमरे में बैठे अखबार देख रहा था कि धुनिये की आवाज सुनकर मेरा मन किया कि अभी जाकर मेरी तन्मयता भंग करने वाले का टेंटुआ दबा दूं। अखबार टेबल पर पटक कर मैं तेजी से जाकर खिड़की के नीचे गली में झांकने लगा जहां से वो गुजर रहा था। इतने में मेरी अल्प मति श्री मती जी दौड़ती-भागती आयी और हांफती हुई चिल्लाकर बोली---"सुनते हो जी.??"

   मेरे कान के पर्दे फट गये। परन्तु मैं तुरंत अपने गुस्से को दबाते हुए मगर धीरे से बोला---"नहीं... मैं बहरा हूं,तनिक और जोर से बोलो तब मुझे सुनाई देगा बुड़बक की सहेली.!!जरा सी कोई बात हुई नहीं की दौड़ी चली आयी अपनी बेसुरी बीन बजाते हुए।फटाफट बक क्या बात है।"

   मेरे तेवर से वो थोड़ी घबराई मगर हिम्मत वाली थी।गले का थूक गटकते हुए कहा---

    "तुम्हारे बेटे मानव ने कहा कि मम्मी जाड़ा आ रहा है एक रजाई बनवा लो ना.!!"  

    "अच्छा.!!! क्या तुम मेरे जले पर नमक छिड़कने आयी हो,और जिसे ठीक से अपनी कमीज़ पहनने तक की तमीज नहीं उसे इतनी तमीज कहां से आ गयी.?"---मेरे जैसी पत्नी को बहकाने में मुझे जरा भी देर नहीं लगी।वह अपनी ही बातों में उलझकर रह गयी और सोचने की मुद्रा में जड़वत् हो गयी। मैं मन ही मन यह सोचकर प्रसन्न हुआ कि चलो जान छूटी फिजूल खर्ची से मगर अगले ही पल उसकी दयनीय अंतर्दशा देकर मुझे उसपर दया आ गयी और उसके कंधों पर हाथ रखकर उसे समझाने का प्रयास करते हुए मैंने कहा---

     " सुन मेरी सोन चिरैयां, क्या हर साल जाड़े में नई रजाई बनवानी जरूरी है.? पहले ही की तो हमारे पास जरूरतों भर पूरी है।"

    तब मेरी अर्धांगिनी की शायद अक्ल ठिकाने आयी, और अपने गरीब पति के प्रति सहानुभूति की गागर भर लायी। वह बोली---

     "हांजी.., शायद आप ठीक कहते हो। मैं अभी जाकर लल्ला को समझाती हूं। और आपके लिए गर्मागर्म चाय बनाकर लाती हूं"

     वह भोली पहले की तरह मेरे झांसे में आकर चारों खाने चित्त हो गयी थी और खुद को विवश पाकर भारी मन से वापस चली गयी।

उसके जाने के बाद मेरी जान में जान आयी।इतनी महंगाई में खर्चे का नाम सुनकर जो मेरे माथे पर पसीना चुहचुहा आया था उसे पोंछा और ईश्वर को धन्यवाद् कह मैं पुनः अपने बेड पर लेटकर अखबार पढ़ते हुए अपनी भोली-भाली अर्धांगिनी द्वारा लायी जाने वाली चाय का इंतजार करने लगा।

    मेरी धर्मपत्नी थोड़ी असाधारण और भोली किस्म की स्त्री थी।अब उसेे कौन समझाए कि वर्तमान समय में हम जैसे निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए जीवन जीना कितना कठिन हो चला है।

    खैर, वह थोड़ी पढ़ी लिखी भी थी मगर पुरातन ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी होने की वजह से शहरी आबोहवा को हजम नहीं कर पा रही थी। यहां की हर एक गतिविधियों को समझकर उपर निर्णय लेने में उसे एड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ जाता था मगर फिर भी कभी-कभी सही निर्णय लेने में असफल रहे जाती थी बेचारी। मेरी अर्धांगिनी होने के नाते मुझे उसपर तरस आना लाजमी था इसलिए उसे हमेशा अपना ज्ञानोपदेश देना पड़ता था मगर लंबे अरसे तक मेरी इतनी मेहनत के बावजूद भी जब मुझे उसमें कोई परिवर्तन नजर नहीं आया तो मैंने अपने इष्ट देव से क्षमा प्रार्थना कर अपनी गृहस्थी की डगमग नैया उन्हीं के हाथों सौंप अपनी धर्मपत्नी को सही रास्ते पर लाने का पुण्य काम करना छोड़ दिया और खुद को उसी के धारा प्रवाह के साथ जोड़ लिया। आखिर थी तो वो मेरी ही अर्द्धांगिनी.!!!


यह कहानी सर्वथा काल्पनिक है। इसका अन्य किसी कहानी से मेल मात्र संयोग ही कहा जाएगा।



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