काजू
काजू
लहलहाती फ़सल और बढ़ती सम्पन्नता से अब उन लोगों को भी समझ में आने लगा है कि परिस्थितियों का रोना रोने से परिस्थितियाँ नहीं बदलती बल्कि उनके अनुसार खुद को बदलने से तक़दीर बदली जा सकती है ।
पूँजीवाद के बढ़ते पाँव और प्राकृतिक आपदा की वजह से गाँव में भयंकर गरीबी झेलने के बाद, वह भी गाँव के लोगों के साथ मेहनत करके कुछ कमाने के लिये उस जगह जा पहुँचा जहाँ काजू की खेती होती थी। वहाँ उसने जम कर मेहनत की और वापसी में वहाँ से काजू की खेती के तकनीकी ज्ञान के साथ उसके बीज भी लेता आया।
अपने गाँव में आ कर उन बीजों को बो कर उसने नयी फ़सल तैयार की और महंगे काजुओं को सस्ती दर पर बेचना शुरु कर दिया। पहले जो मजबूरी में महंगे काजू ख़रीदने से दूर तक जाते थे उनको अब पास में ही सस्ते काजू मिलने लगे। जहाँ पहले भुखमरी की काली बदरी छाई रहती थी अब ख़ुशहाली के बादल छाने लगे हैं ।