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Shobhit शोभित

Romance

4.9  

Shobhit शोभित

Romance

इज़हार

इज़हार

11 mins
623


आज सुबह भागते भागते यह डी टी सी की बस पकड़ी थी। मेरे लिए यही बस पकड़ना बहुत ज़रुरी था, वर्ना फिर वो छूट जाती। वो? बस? नहीं नहीं... बस नहीं... मेरी वो... अरे वही... जिसको देखकर मेरे दिल की धड़कन तेज हो जाती है, सुध बुध सी गुम हो जाती है। अभी दो स्टॉप आगे से चड़ेगी वो, फिर साउथ एक्सटेंशन तक हमारा साथ होगा। डी टी सी बसों का सफ़र कोई आसान नहीं होता, इतनी भीड़, पसीने की बदबू, जेब काटने का डर और पता नहीं क्या क्या... सीट भी मिलना कोई जंग जीतने से कम मुश्किल नहीं। हालाँकि महिलाओं को सीट मिलना आसान होता है क्योंकि उनका तो आरक्षण होता ही है। पुरुषों का तो हाल ही ख़राब है, रोज़ की बात है।

यह लीजिये डी टी सी पुराण के ख़त्म होने से पहले ही आ गया स्टॉप, अब बस के सफ़र में दिल लगेगा। अब कहाँ रहेगी बदबू, कहाँ दिखेगी भीड़। अब तो सिर्फ वो दिखेगी, सिर्फ वो।

 “आज फिरोजी सूट में क्या ख़ूबसूरत लग रही है। शायद... मेरे लिए ही यह सूट पहना है।” कई दिनों से देख रहा हूँ, कई रंगों में देखा इन्हें पर आज पहली बार फिरोजी रंग पहना है। मुझे याद है अभी कुछ दिनों पहले ही तो मैं ऐसे ही सफ़र में था और मम्मी का फ़ोन आया था, वो पूछ रही थी कि मेरे जन्मदिन पर कौन सी साड़ी पहनूं। मैंने फ़ोन पर मम्मी को बोला था कि मम्मी आप फिरोजी रंग की साड़ी पहनना, फिरोजी रंग मुझे बहुत अच्छा लगता है।

 उसको आज इस रंग में देखा तो यही ख्याल आया कि आज मेरा विशेष दिन है और फिरोजी रंग मेरी पसंद को जानकर, इन्होंने पहना है। ऐसा लग रहा था कि जैसे मेरा दिल सीना फाड़कर बाहर आ जायेगा। दिल जोरों से, बहुत जोरों से धड़क रहा था। बस और सड़क के इस शोर में भी धक् धक् मुझे साफ़ सुनाई दे रही थी।

 

रोज की तरह ही वो मेरे नज़दीक आई और ‘महिला आरक्षित सीट’ पर बैठे हुए शख्स को उठाकर खुद बैठ गयी। वो और मैं बिलकुल बराबर बराबर थे और मुझे पता था कि यह निकटता बस कुछ ही देर की है, वो मेरे पास केवल कुछ ही स्टॉप के लिए है, फिर उसका स्टॉप आएगा और उसके बाद वो उतर जाएगी। इसके बाद फिर सीधे कल मिलेगी।

 उसके लिए बार बार ‘वो’, ‘इन्हें’ बोलना थोड़ा अजीब लगता है पर क्या करूँ मुझे उसका नाम ही नहीं पता, कभी बात ही नहीं हो पायी। वो ग्रीन पार्क के आस पास उतरती है तो शायद वहीं किसी जगह काम करती होगी। इसके अलावा मुझे इनके बारे में कुछ भी नहीं पता। मैं उसको पिछले 2 महीने से देख रहा था। न तो मुझे उसका नाम पता था और न ही उससे कोई बात हुई थी। पर फिर भी पता नहीं क्या बात थी, दिल इसकी तरफ़ खिंचा ही चला जा रहा था। आज हालत यह थी कि पूरे दिन में यह कुछ मिनट मेरे दिन के सबसे महत्वपूर्ण मिनट होते थे, जिसका इंतज़ार मुझे हर घड़ी रहता था।

ऐसा नहीं है कि मुझे बोलना नहीं आता या कोई और कमी है। बात यह है कि डर लगता है कि न होने के चक्कर में सब कुछ ख़त्म न हो जाये। कभी सही समय लगा तो बात करूँगा ताकि कम से कम नुकसान हो। पर यह कैसे हो, मुझे नहीं पता।

 

समझ नहीं आता कि कैसे बात करूँ इससे? कहीं इसकी ज़िन्दगी में पहले ही तो कोई नहीं? नहीं, नहीं... ऐसा नहीं हो सकता... ऐसा होता तो कभी तो यह फ़ोन पर धीमी धीमी आवाज़ में बात करती दिखती! पर बिना जाने कैसे पक्का हो!

 मैं इससे बात करूँ तो कहीं यह मुझे कोई लोफर तो नहीं समझेगी? कहीं यह शोर मचा कर भीड़ तो जमा नहीं कर लेगी? नहीं नहीं ऐसा कैसे हो सकता है, शक्ल से तो मैं शरीफ ही लगता हूँ। फिर मैंने इसके साथ कोई गलत हरकत तो नहीं की है। फिर बिना बात किये कैसे काम चलेगा।

 यही कुछ मेरे दिमाग में रोज की तरह आज भी घूम रहा था। इधर कुआँ, उधर खाई है। बात न करो तो खोने का डर। बात कर ली और प्रस्ताव स्वीकार नहीं हुआ तो फिर तो शायद इन्हें मेरी शक्ल देखना पसंद न रहे। हमेशा के लिए जो रोज रोज देख कर सुकून मिलता है वो भी खत्म।

 

ऐसे तो दिन निकलते ही रहेंगे। कब तक ऐसे ही घूमता रहूँगा। उम्र निकल रही है, घर वालों का बहुत प्रेशर है, ऐसे नहीं चलेगा... मुझे इससे बात करनी ही पढ़ेगी। कैसे करूँ?

 वो बिलकुल मेरे बराबर में है। शायद गाने सुन रही थी, कम से कम उसके कान में ठुसे हुए इयरफ़ोन तो यही दिखा रहे हैं। वो बीच बीच में कभी दुपट्टे में अपनी ऊँगली गोल गोल लपेट रही तो कभी सूट की किनारी से खेल रही है और मुझे उसकी ये हरकत बहुत अच्छी लग रही है। मन कर रहा है कि बस ऐसे ही इन्हें देखता रहूँ।

 अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है, वो मेरी तरफ़ देख के मुस्कुराई थी। पर मैं ऐसे ही ख्यालों में व्यस्त था और उसे ढंग से जवाब ही नहीं दे पाया था। जब तक जवाब देता तब तक वो वो गुस्सा हो गयी थी शायद, तब से निगाह ही नहीं मिलाई। उस दिन के बाद से मेरी घबराहट थोड़ी और बढ़ गई है। बार बार अफ़सोस होता है कि कितना शानदार मौका था वो जो मैंने गँवा दिया।

 हमेशा ही यही डर रहता है कि क्या करेगी, क्या कहेगी वो?

 

“कैसे बात की शुरुआत करूँ इससे? ‘हेल्लो’ से शुरू करूँ? या कोई साधारण सा प्रश्न पूछ लूं? क्या एकदम से उसकी ख़ूबसूरती की तारीफ कर दूँ? ... ये करूँ? या वो करूँ? या कुछ और करूँ?”

 “एक पेन ही मांग लेता हूँ, यह बोल कर कि घर रह गया और अभी कुछ बहुत ज़रुरी बात लिखना है..” एकदम से ख्याल आया, “.. हाँ ये सही रहेगा। एक बार बात शुरू होगी तो फिर होती रहेगी।”

 मैं अपने आप को सँभालते हुए पूरे जोश के साथ उसकी तरफ घूमा और..

 ...कि वो उठकर बस के दरवाज़े के पास पहुँच गई थी। उसका स्टॉप कुछ ही सेकंडों में आने वाला है, अब पेन मांगने का कोई फायदा नहीं है। मुझे देर हो गयी है। जो रोज होता आ रहा था वो आज फिर से हो गया है। मैं ख्यालों में अपनी उधेड़ बुन ने ही करता रह गया और वो अपना सफ़र पूरा करके चल भी दी।

 “.. ग्रीन पार्क आने वाला है। सवारियाँ आगे गेट पर पहुँच जाएँ”

ये बस में कंडक्टर की गूंजती हुई आवाज़ मुझे पिघले हुए लोहे जैसे अपने कानों में आती हुई लगी।

 

उसने एक सेकंड के हजारवें भाग के बराबर जैसे एक क्षण के लिए मुझे देखा और उतर गयी।

और इधर मैं अभी भी सोच ही रहा हूँ कि “अब कल मैं क्या करूँगा? क्या कैसे बोलूँगा? जब वो कल फिर से मेरे पास आएगी सिर्फ कुछ स्टेशन के साथ के लिए।”

 

“क्या कभी मैं बोल पाउँगा उसको अपने दिल का हाल?”

 “क्या कल भी वो आएगी? क्या इसी बस में आएगी? क्या ऐसे ही हम पास पास हो पाएंगे? क्या कल फिर से मैं बात नहीं कर पाउँगा?”

 “नहीं. नहीं.. नहीं... बहुत हो गया। आज नहीं तो कभी नहीं।”

 

मैं फ़ौरन कूदता हुआ, एक सांप जैसे झूम झूम के चलता है वैसे ही मैं भी बस की भीड़ में अपनी जगह बनाते हुए गेट पर पहुँच गया। आज जो हिम्मत मैं अपने अन्दर महसूस कर रहा हूँ वह पता नहीं इतने दिनों से कहाँ ग़ायब थी आज जैसा जोश मैंने पिछले कई दिन से महसूस नहीं किया। आज मुझे कुछ न कुछ करके ही रहना है। आज नहीं तो कभी नहीं।

 इससे बात करने के चक्कर में एक दिन की सैलरी कट जाएगी पर कोई नहीं। आज मुझे अपने काम के लिए देर होने की भी चिंता नहीं है। आज असल में कोई चिंता नहीं है। आज नो बकवास, सिर्फ सीधी बात।

 

वो उतरी, फिर तीन सवारियों के बाद मैं ग्रीन पार्क उतरा। वो आगे आगे और मैं पीछे थोड़ी तेज चाल से उसके पास पहुँचने की कोशिश में। “एक्सक्यूस मी!” उसके करीब पहुँचते हुए मैं बोला। वो रुक गई और मेरी तरफ़ भावहीन चेहरा लिए बोली “जी!”

 “जी, मैं, सौरभ, काम ढूंढ रहा हूँ। आप शायद यहीं किसी ऑफ़िस में काम करती हैं, अगर कहीं जॉब लगवा सकें तो मेहरबानी होगी, यह मेरे डाक्यूमेंट्स की कॉपी है। आप रख लीजिए और बताईयेगा।” जैसे तैसे हिम्मत करके कुछ भी बोल दिया उनको।

 

अब वो क्या करेगी, इसको लेकर मेरे सोच के घोड़े दौड़ना शुरू भी हो गए हैं और मैं अपनी नकारात्मक सोच को नियंत्रण में रखने कि असफल कोशिश में लगा हुआ हूँ कि वो बोली “ठीक है, मैं देखती हूँ और बताती हूँ आपको। आपका नंबर तो होगा ही इसमें।” मैंने तो बस सर हिला दिया, बिना बात सुने ही, आवाज़ ही इतनी मीठी थी जैसे सुबह सुबह मंदिर में कोई आरती गूंजी हो।

 वो घूम कर अपने रास्ते पर चलने लगी और मैं वापिस मुड़कर अपने ऑफिस के रास्ते। फिर से डीटीसी की यात्रा पर।

 

अब बात की शुरुआत तो कर ली पर इसके साथ ही नई बीमारी शुरू हो गई कि क्या वो फ़ोन करेगी, क्या वो कागज़ कूड़े में फेकेगी? कहीं सच में नौकरी न लगवा दे? मैं अपनी नौकरी और इसकी भविष्य की संभावनाओं से बहुत खुश हूँ और कोई जॉब नहीं ढूंढ रहा पर मुझे यह भी एक आईडिया आया था एक दिन क्योंकि मैंने अपने ऑफिस में भी देखा था कि ऑफिस में लोग अपने जानने वालों के और कई बार अन्य लोगों के पेपर्स भी लगाते ही रहते थे और इन नए लोगों की नौकरी लग जाने पर अलग से बोनस भी मिलता था।

 

मुझे यह सबसे कम हानिकारक लगा था पर अब लग रहा है कि मुझे उसका नम्बर भी मांग लेना चाहिए था। नंबर नहीं तो नाम ही सही कुछ तो पूछता। कुछ और बात होती तो कम से कम इतना सस्पेंस नहीं रहता पर अब क्या कर सकते हैं, अब तो घंटी बज चुकी है। खैर पूरा दिन ऐसे ही ख़यालात में और उसके फ़ोन के इंतज़ार में बीत गया। लगा कि शायद रात में फ़ोन आ जाये। पर फ़ोन नहीं आया। रात भी सोते जागते ही निकल गयी।

 

सुबह एक अलग ही कहानी चल रही है दिमाग में कि आज बस से जाऊँ या न जाऊँ! कैसे सामना करूँ उसका? कुछ पूछूं उससे या उसके जवाब का इंतज़ार करूँ।

 नहीं... नहीं... मैं जवाब का इंतज़ार क्यों करूँ। इससे तो लगेगा कि मुझे जॉब कि कोई जरुरत ही नहीं। यह तो बात और ख़राब हो जाएगी।

 खैर आज फिर से, उससे बात करने के मूड में, आज थोड़ा ज्यादा सज धज कर, महंगा वाला परफ्यूम लगाकर, मैं बस स्टॉप पर पहुँच गया। बस में चढ़ते ही फिर से उसके ख्याल आने लगे। पर आज मन में घुमड़ रहे सवाल पहले से अलग हैं। अब तो एक मिनट बात कर ली है तो जोश एक अलग ही लेवल पर है। नकारात्मक बातें तो आज भी आ रही हैं पर जैसे ही आ रही हैं वैसे ही झटक रहा हूँ।

 

पर यह क्या? आज वो अपने स्टॉप पर है ही नहीं। बस में चार बार आगे पीछे देखा, बस में भी नहीं है। बस से उतर कर उसका इंतज़ार करूँ क्या? नहीं, ऐसा कैसे करूँ? अच्छा नहीं लगेगा। फिर वो रोज़ ही तो इस बस से जाती है, पिछले कई महीनों से देख रहा हूँ, आज पहली बार है जब वो इस बस में नहीं है। सारा जोश पानी पानी हो गया, दिल टुकड़े टुकड़े हो गया। अफ़सोस है कि कल उससे क्यों बात कर ली, चलने देता ऐसे ही। ऐसे ही सोचते सोचते ऐसा लगा कि जैसे में किसी नदी में तैर रहा हूँ और बस डूबने वाला हूँ कि तभी मेरा फ़ोन बजा और ख्यालों को जैसे ब्रेक लगा।

 

अनजान नंबर... किसने फ़ोन कर दिया? अमेज़न से एक किताब मंगवाई थी वो कूरियर वाला ही होगा सुबह सुबह प्राइम डिलीवरी के लिए। खैर अब बात तो कर ही लेते हैं क्या पता किसी और का हो, बड़े बुझे स्वर में मैं “हेल्लो” बोल पाया।

 “हेल्लो सौरभ,” कानों में जैसे किसी ने मिश्री घोल दी हो, जैसे सुबह सुबह कोई कोयल चहकी हो, अब मैं उस आवाज़ को लाखों में पहचान सकता था, “मैं मीनाक्षी बोल रही हूँ।”

 “मीनाक्षी?” मैं जानबूझकर अनजान बनते हुए बोला।

 “अरे पहचाना नहीं? मैं रोज बस में आपके साथ होती हूँ। कल आपने जॉब...”

 “अरे हाँ पहचान लिया आपको” मैंने उसकी बात काटते हुए अपने हाथ में वार्तालाप का सूत्र लिया, “मैं आपके फ़ोन का ही इंतज़ार कर रहा था। जॉब की बहुत बहुत जरुरत है और आपका ही सहारा है।”

 “आपको जॉब की वाकई जरुरत है? माफ़ कीजिए मुझे नहीं लगता... आप रोज तो ऐसे देखते हो जैसे बच्चा टॉफी को देखता है... हम तो उड़ती चिड़िया के पर गिन लें। नौकरी तो बस एक बहाना है, असल में तो आपको हमारे करीब आना है।” और वो खिल खिला के हँसने लगी।

 

“अरे कहीं यह मुझे झंड तो नहीं करेगी!”, पर उसके आवाज़ की खनक सुनकर इधर मैं भी हँसने लगा।

 कानों में मधुर ध्वनि फिर से गूंजने लगी, “कैसे हैं आप? तो कब आ रहे हैं ऑफ़िस में इंटरव्यू देने?”

 उसकी हँसी फिर से गूंज रही है और मैं, उससे मिलने की बैचेनी को छुपाता हुआ, उससे बोला, “आज आप ऑफ़िस नहीं गए?”

 “ऑफ़िस? अरे, आज रविवार है? आज तो छुट्टी है। आपका ऑफ़िस खुला है क्या?”

 

अब मैं उसे क्या बताता कि उसके ख्यालों में ऐसा गुम हूँ कि रविवार का याद ही नहीं रहा। अब बस में देखा तो पता चला कि भीड़ भी ऱोज से कम ही है।

वो खिलखिला कर हंस रही है और मैं अपनी झेंप मिटाने की कोशिश में बस इतना ही बोल पाया कि “आज कुछ काम था तो ऑफ़िस आ गया, थोड़ी देर में फ्री होकर बार करता हूँ। क्या हम शाम को मिल सकते हैं?”

 “आप बता दीजियेगा मैं आने की पूरी कोशिश करुँगी।”

 

उससे ज्यादा इंतज़ार तो मुझे उससे मिलने का रहेगा और शायद आपको भी होगा कि क्या हुआ? कैसे हुआ? क्या यह जमूरा अपनी प्रेम गाड़ी चला पाया? आप लोग दुआ कीजिए कि सब सही हो और हमारे प्यार को किसी की नज़र न लगे.


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