टुल्लू पम्प की पीड़ा
टुल्लू पम्प की पीड़ा
बारिश इधर हो नहीं रही है और मेरी जान आफ़त में है। हालत उस गन्ने सी हो गयी है जिसे मशीन में इस उम्मीद से डाला जाता है कि शायद रस निकल आये।कोई उस बेचारे गन्ने से नहीं पूछता की उसकी क्या हालत होती है।
वैसे तो मैं भी एक मशीन ही हूँ पर मेरी हालत गन्ने की तरह हमेशा से ख़राब नहीं थी। कभी मेरे भी सुनहरे दिन हुआ करते थे। अभी कुछ साल पहले तक हर घर में मेरी अलग शान होती थी, मेरे चलने से ही दिन निकलता था और न चलने तक सब लोग चाय पी पी कर तैयार होने का इंतज़ार करते थे। नहीं समझे मैं कौन ? अरे आपका पानी का साथी, टुल्लू पंप।
क्या दिन थे, इधर मुझे चलाया उधर पानी आया।
और एक अभी के दिन हैं, घंटो घंटो चलाओ तब भी पानी का पता नहीं। इतना सुनना होता है मुझे कि पूछो मत। कोई कहता है ये पुराना हो गया, कोई कहता है यह अल्लाह को प्यारा हो गया, कोई कुछ कोई कुछ उफ़्फ़..।
अरे ! इन्सान अपने गिरेबान में झांककर क्यों नहीं देखता। जब उसने पेड़ लगाने बंद किये, तो नहीं सोचा। पुराने पेड़ काट दिए तो नहीं सोचा। बाँध बना दिए, जंगलों की जगह पक्के मकान बना दिए। मतलब वो सब कुछ किया जिससे न बारिश हो और न ही धरती के नीचे पानी बचे। बिलकुल उस बन्दर की तरह जो जिस पेड़ की डाल पर बैठता है, उसी को काटता है।
चाहे दस घंटे चलाओ या मेरा नया भाई ले आओ, अब जब धरती के नीचे पानी है ही नहीं तो मैं कहाँ से निकाल के दूं। मैं तो अपना पूरा दम लगा ही देता हूँ न।
वो दिन दूर नहीं अगर ऐसा ही चलता रहा तो मैं म्यूजियम में रखा जाऊं और इतिहास की किताबों में ही सिमट कर रह जाऊं।
मुझे इन्सान ने ही बनाया और इन्सान ने ही बेकार कर दिया।
दोष किसको दूं ? अभी भी समय है, मुझे भले न बचा पाओ पर मूर्ख इन्सान तुम सुधर जाओ। पानी बचाओ, प्रकृति बचाओ और अपने आपको बचाओ।