Shobhit शोभित

Abstract

5.0  

Shobhit शोभित

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सामंजस्य

सामंजस्य

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मेरी एक दोस्त, संध्या, की शादी अभी कुछ ही दिन पहले हुई थी। आज वो शादी के बाद पहली बार पीहर रहने आई थी। मेरी बचपन की दोस्त थी तो मैंने गप्पे लड़ाने के लिए उसे अपने घर चाय पर बुला लिया था।

जैसा कि सोचा था वैसे ही जोश एक साथ वो मुझसे मिलने आई थी। उसकी पहली रात, वहां का माहौल जानने की उत्सुकता थी ही तो यही कुछ बातें चल रही थी। पर उसको अभी से अपने ससुरालियों से और उनके रहन सहन से समस्या हो रही थी। उसके अनुसार, पीहर आना ऐसे था जैसे कि स्वर्ग में आ गयी हो।

मैं उसकी समस्या समझ तो रही थी पर उसको समझाने का सही रास्ता ढूंढ नहीं पा रही थी।उसने मेरा ध्यान कहीं और देखा तो शायद उसको लगा कि मैं उसकी बातों से बोर हो रही हूँ। उसने जैसे विषय बदलने के लिए मुझसे पूछा,

“अरे कल्पना, वो मेरी मछलियों का क्या हुआ जो मैं तेरे फ़िश पोंड में डाल गयी थी। ध्यान तो रख रही है न ? तुझे पता है वो मुझे कितनी प्यारी है ?”

“अरे हाँ ! चल दिखाती हूँ तुझे।”

“अरे ! यह तो 6 में से केवल 2 रह गयी हैं !” वो मछलियों को देखते हुए चीखी, “क्या हुआ इन्हें ?”

असल में केवल यह दो ही नए तालाब में सामंजस्य बना पाई। नई जगह में सामंजस्य बिना बैठाये जीवन नामुमकिन होता है।”

“तेरी बात बिलकुल सही है।“

उसका चेहरा यह बोलते हुए जैसे चमक रहा था उससे साफ़ लग रहा था कि उसको शिक्षा मिल चुकी है, जीवन की शिक्षा।


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