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Sunita Maheshwari

Romance Tragedy

4.6  

Sunita Maheshwari

Romance Tragedy

पहला प्यार

पहला प्यार

10 mins
956


जून का महीना था। गर्मी अपनी पराकाष्ठा पर थी। धूल भरी गर्म हवाएं जीना दूभर कर रही थीं। ऐसे में पचास वर्षीया नलिनी बाज़ार में कुछ देर में ही थक गई थी। गर्मी के कारण उसका गला सूख रहा था। पता नहीं क्यों उसका मन कुछ ज्यादा ही बेचैन था।उसने ड्राइवर को फोन किया,

 “ड्राइवर कहाँ हो ? जल्दी ही कार ले कर सैमसंग के शो रुम के सामने आ जाओ।”

वह सारे कार्य बीच में ही छोड़ कर कार में बैठ घर आ गई थी।“ललिता जल्दी से मुझे जूस देना और हाँ जरा ए.सी. चला देना।”

आते ही उसने पर्स एक तरफ पटका जूस पिया और बिस्तर पड़ गई। थोड़ी देर में ही उसकी आँख लग गई वह कुछ देर ही सोयी होगी कि फोन की घंटी बज उठी। अचानक ही उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। कभी-कभी मन के सुख-दुःख परिस्थिति के उजागर होने से पूर्व ही सामने आ जाते हैं। वह उनींदी सी उठी और फोन पर बातें करने लगी। फोन उसकी बचपन की प्रिय सहेली अनु का था। “नलिनी, बहुत बुरी खबर सुना रही हूँ। बड़े भैया पुष्कर की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गयी।”

रोते-रोते अनु एक साँस में बोल गयी।

मृत्यु का समाचार सुन कर नलिनी को अनु की बातों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था।

“क्या बात कर रही है, ऐसा नहीं हो सकता।” 

घबराते हुए नलिनी बोली। उसका दिल बैठ जा रहा था। युवावस्था की रंगीन फिल्म जैसी यादें पल भर में उसके मस्तिस्क उभर आईं। उधर अनु का बुरा हाल था। उसकी हिचकियों की आवाज फोन पर भी स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी। नलिनी ने अपने को जैसे-तैसे सँभाला और अनु को सांत्वना देते हुए कहा,  “अनु प्लीज रो मत, धीरज रख, नहीं तो तू बीमार पड़ जाएगी। तुझे ही तो सबको संभालना है। अनु, एक्सीडेंट कैसे हो गया ?”

अनु अपने भैया की याद कर रोये जा रही थी। वह ट्रक ड्राइवर को कोसते हुए बोली,

“शराब के नशे में धुत्त एक ट्रक ड्राइवर ने पुष्कर भैया की कार को सामने से आकर ठोक दिया। नलिनी, गाड़ी तो माचिस की डिब्बी जैसी टूट फूट गई। बड़ी मुश्किल से भैया को कार से निकाला गया था।“भाभी कैसी हैं?” नलिनी ने पूछा।

 “भाभी का तो बुरा हाल है। वे हॉस्पिटल में हैं। उनकी स्थिति क्रिटीकल है।

अनु सुबकते हुए बोली।”

भावुक हुई नलिनी ने अनु को सांत्वना देते हुए कहा। 

 “अनु तुम तो रोज गीता पाठ करती हो। तुम जानती हो पुष्कर अमर हैं। उनकी आत्मा हम सब के साथ है अनु।”

नलिनी से बात कर अनु का मन कुछ हलका हुआ। जब पीड़ा बाँट ली जाती है, तो उसका प्रभाव भी कम हो जाता है। नलिनी अनु से बहुत देर तक बातें करती रही और उसके भाई की मृत्यु के विषय में उससे जानकारी लेती रही और उसे समझाती रही।  

परन्तु सच तो यह था कि उस दिन नलिनी का मन रो उठा था। उसका हृदय चूर-चूर हो गया था। उसकी आँखों के सामने अपने प्रिय पुष्कर का चेहरा था। उसके सामने युवा अवस्था के दिन चलचित्र के समान उभरने लगे थे। जब वह बीस साल की रही होगी तब वह अनु के भाई पुष्कर को अनजाने में ही चाहने लगी थी। वे दोनों मिलते, बात चीत करते थे। उसे पुष्कर के साथ बिताये पल पुस्तक में लिखे प्यार भरे एक- एक अक्षर की तरह याद आने लगे। कैसे वह पुष्कर से मिलने किसी न किसी बहाने से अनु के घर जाती थी। कभी अनु, नलिनी और पुष्कर फिल्म देखने जाते तो कभी पिकनिक। कैसे हंसी मजाक में एक दूसरे की खिंचाई करते आदि। हास -परिहास लड़ाई, प्रेम सब कुछ तो होता था। कभी जब नलिनी को अनु के घर देर हो जाती तो पुष्कर ही तो उसे घर छोड़ने आते थे। पुष्कर की मोटर साइकिल पर जब वह पीछे बैठती तो एक अजीब सी सिहरन से उसका सारा शरीर झनझना जाता था। उन पलों की याद आते ही नलिनी आज भी सिहर उठी थी। कैसे मादक से पल थे वे। उसके मन में पुष्कर की छवि बसी रहती थी। एक दूसरे के प्रति उनका आकर्षण बढ़ता ही जा रहा था। धीरे- धीरे यह आकर्षण कब चुपके से प्यार में बदल गया, पता ही नहीं चला। परन्तु सबसे बड़ा दुर्भाग्य था कि आपस में उन्होंनें कभी अपने प्यार को व्यक्त ही नहीं किया था। मन में तो दोनों ने मिलन के सपने सजाये पर संकोच वश प्यार का इजहार न कर सके।

एक दिन वह अनु के घर गई थी। वहाँ पुष्कर के अलावा और कोई नहीं था। नलिनी उसे अकेला देख लौटने लगी थी, पर पुष्कर ने कहा,

“रुको न नलिनी थोड़ी देर, अनु आती ही होगी।”

मन ही मन तो नलिनी भी रुकना चाहती थी। पुष्कर के कहने पर वह रुक गई। पुष्कर कुछ पढ़ रहे थे। नलिनी उनकी कुर्सी के पास आकर सहमी सी खड़ी हो गई थी। अनकही भावनायें स्वयं ही उजागर हो जाना चाहती थीं। गर्मी की उस सुनसान दोपहरी में दोनों इतने निकट थे कि दोनों को एक दूसरे की तीव्र साँसे स्पष्ट सुनाई दे रही थीं। बातें करते-करते पुष्कर ने नलिनी के कंधे पर हाथ रख दिया था और फिर पता नहीं क्या हुआ था कि पुष्कर ने उसकी गर्दन पर एक गहरा चुम्बन ले डाला। नलिनी सकपका गई थी। वह हँसती-शर्माती हुई सी घर से बाहर निकल अपने घर आ गई थी। उस चुम्बन का अहसास उसे अपनी गर्दन पर महीनों होता रहा था। वह गर्दन पर पड़े निशान को देख स्वयं शर्मा जाती थी।

कुछ दिन बाद पुष्कर नौकरी के लिए दिल्ली चले गए थे। नलिनी पुष्कर के विषय में ही सोचती रहती थी।जब वह अनु के घर जाती तो किसी न किसी बहाने से पुष्कर के कमरे में चली जाती थी। कभी वह पुष्कर के सामान को देखती तो कभी उसकी कमीज को सूंघ कर उसकी महक को अपने में समाहित कर लेना चाहती थी। वह पुष्कर के ख्यालों में ही खोई रहती थी, पर उसने अपने मन के भावों को कभी प्रकट नहीं किया था। पुष्कर भी मन ही मन नलिनी को चाहने लगे थे।

 कुछ समय बाद नलिनी की बहन के विवाह में पुष्कर भी बड़ी उमंग उल्लास से आये थे। वे नलिनी के प्रति अपने प्यार को व्यक्त कर अपनी जिन्दगी में सुनहरे रंग भर लेना चाहते थे। नलिनी भी पुष्कर के आने से बेहद खुश थी, चहक- चहक कर सभी मेहमानों के साथ कुछ ज्यादा ही हिलमिल रही थी। वह पुष्कर के साथ अपनी दुनिया बसा लेने को आतुर थी। तभी हास-परिहास के बीच पुष्कर ने अपना प्रेम प्रस्ताव नलिनी के सम्मुख एक गाने के रूप में रखा था। वह कितनी प्रसन्न थी उस दिन, पर उस प्रस्ताव पर हाँ की मुहर लगाने का उसे अवसर ही नहीं मिला। उस पर एक और गड़बड़ी हुई थी, मन के भावों के विपरीत अनु के बड़े भाई होने के कारण वह सब के सामने उन्हें ‘भैया’ कह कर संबोधित कर रही थी। नलिनी के मुख से ‘भैया’ शब्द सुनकर पुष्कर ने समझा कि नलिनी का उत्तर ‘नहीं’ है। वे विवाहोत्सव समाप्त होते ही अपनी सपनों की दुनिया लुटा कर दुःखी मन से तुरंत दिल्ली चले गए थे। उनके सामने नलिनी का व्यक्तित्व एक प्रश्न चिन्ह बन गया था। उन्हें इस तरह जाते देख नलिनी दुःखी हो गयी, पर न जाने किस संकोच और शर्म के कारण अपने प्यार को जताने में असमर्थ रही।

इस के बाद कई बार वे भोपाल आये पर कभी नलिनी से मिले नहीं। उसकी सहेली अनु की भी शादी हो गई थी। कभी- कभी अनु का छोटा भाई मिलता तो नलिनी उससे पूछ “क्या पुष्कर मेरे विषय में कुछ पूछते हैं।”

दीप सोचता और कह देता, “नहीं दीदी।”

एक दिन किसी काम से वह अनु के घर गई थी। तभी दीप ने बड़ी उमंग और खुशी से कहा था, “दीदी आपको मालूम है, भैया की सगाई हो गई है।”

नलिनी को तो ऐसा लगा कि जैसे उसका प्यार भरा संसार ही लुट गया हो। वह वहाँ ज्यादा देर रुक नहीं पायी थी और घर आकर अपने कमरे में पड़ी-पड़ी न जाने कितनी देर रोती रही थी।

कुछ दिन बाद पुष्कर पुनः भोपाल आये तब नलिनी से उनकी मुलाकात हुई। नलिनी ने बड़ी निराशा से पूछा,“क्या सगाई से पहले आपको मेरा ख्याल नहीं आया? मैं कब से आपका इन्तजार कर रही हूँ।”

नलिनी की बात सुन वे स्तब्ध से रह गए थे। आपस में खुल कर बात न करने का यह दुष्परिणाम हुआ था। दोनों ही सोच रहे थे कि काश खुल कर बात की होती तो आज ऐसे बिछड़ना न पड़ता। दोनों को व्यर्थ ही प्यार का बलिदान देना पड़ रहा था। इतनी हिम्मत भी न थी कि सगाई तोड़ने की बात की जाए। अब तक बहुत देर हो चुकी थी। दोनों एक दूसरे से सच्चा प्यार करते थे अतः दोनों ने मन ही मन सोचा कि वे कभी एक दूसरे के वैवाहिक जीवन में आड़े नहीं आयेंगे। कुछ दिन बाद पुष्कर का विवाह ज्योति के साथ हो गया था। दोनों की राहें पूर्णतया अलग हो चुकी थीं।

पुष्कर ने जिन्दगी से समझौता कर ज्योति को पूरे मन से अपना लिया था। उसके दो पुत्र भी थे। वे अपनी दुनिया में प्रसन्न   समय के साथ नलिनी ने भी अपने मन को समझा लिया था। परिस्थितियों के अनुकूल वह भी जिन्दगी में आगे बढ़ गई थी। उसके माता पिता ने योग्य वर देख उसका भी विवाह एक अच्छे खानदान में कर दिया था। वह अपने पति के साथ प्रसन्न थी। पुष्कर की पुरानी यादों को उसने दूध में पड़ी मक्खी के समान निकाल दिया था। वह अपने पति और बच्चों के साथ खुश रहती थी। वह अपने पति से एक निष्ठ प्रेम करना चाहती थी।  

उसकी फिर कभी पुष्कर से मुलाकात भी नहीं हुई थी। पर एक घटक था जो उसे जाने अनजाने उम्र भर सताता रहा, वह था उसका अवचेतन मन। साल में दो चार बार उसे सपने में पुष्कर दिखाई पड़ते। वे स्वप्न में उससे बातें करते, सूनी सड़कों पर हाथ में हाथ डाले उसके साथ घूमते, हँसी मजाक करते। उन स्वप्नों में नलिनी भी खो जाती थी। पर एक प्रश्न उसे सदा कचोटता कि वह तो जागृत अवस्था में सदैव अपने पति और बच्चों के बारे में ही सोचती-विचारती है और पुष्कर के विषय में बिलकुल नहीं सोचती तो फिर आये दिन वे स्वप्न में क्यों दिखाई पड़ते हैं ? 

 उसे लगता कि पहले प्यार का नशा ही कुछ अलग है। लोग इसीलिए प्रथम प्रणय को प्रभावकारी एवं अविस्मरणीय कहते हैं, क्योंकि वह अपनी जड़ें मस्तिष्क में पर्त दर पर्त जाकर मजबूती से जमा लेता है। वह फ्राइड के स्वप्न के सिद्धांत के बारे में सोचने लगी। जिन बातों को चेतन मन सोचता ही नहीं है, उन्हें भी अचेतन, अवचेतन मन कैसे सपनों के माध्यम से जीवन में शामिल कर लेते हैं ? पर्त दर पर्त जिन्दगी कैसे यादों में समाहित हो स्वप्न के रुप में प्रकट हो जाती है। चेतन अवचेतन मन दोनों अलग-अलग तरह से कार्य करने लगते हैं। उनकी अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं होती हैं।   नलिनी इन्हीं विचारों की दुनिया में लीन थी। वह निराश सी बैठी न जाने कब तक उन यादों में खोई रही। फिर उठी मुँह हाथ धोये और आया से कहा,

“ललिता, जरा अच्छी सी चाय तो बना कर पिला।”

ललिता थोड़ी देर में ही चाय बना कर ले आयी और साथ में नमकीन और बिस्कुट भी।

तभी नलिनी के पति मोहन घर आ गए। वे उस दिन बहुत प्रसन्न थे। उनका प्रमोशन जो हुआ था। आते ही उन्होंने नलिनी को अंक में भर लिया और बोले, “नलिनी मैं आज सी.ई.ओ. बन गया हूँ। आज मेरी वर्षों पुरानी इच्छा पूर्ण हुई है। आज मैं बहुत खुश हूँ। जल्दी से तैयार हो जाओ आज खाना बाहर ही खायेंगे।”

नलिनी ने अपनी खुशी व्यक्त की और फिर कुछ देर उपरान्त उसने अपने पति को बताया,

 “आज मेरी सहेली अनु का फोन आया था, उसने बताया कि एक कार दुर्घटना में उसके बड़े भाई का निधन हो गया।”मोहन दुःखी हो बोले,

“ओह ! यह तो बड़ा दुखद समाचार है। इसीलिए आज तुम्हारा मुँह कुछ उतरा –उतरा लग रहा है। चलो छोड़ो, अब तुम तैयार हो जाओ, मेरे कुछ मित्र भी आने वाले हैं।"

नलिनी अपनी यादों की दुनिया से उतर फिर धरातल पर आ गई थी और पति के प्रमोशन की खुशी मनाने के लिए तैयार हो गई थी। वह मोहन और बच्चों के साथ फ़िर अपने सुखी संसार में खो जाना चाहती थी। नलिनी अपने पति और बच्चों के साथ कार में बैठ ताज होटल जा रही थी, तभी गाना बज उठा,“भूली हुई यादें इतना न सताओ. अब चैन से रहने दो मेरे पास न आओ।”

नलिनी ने एक ठंडी आह भरी और पुष्कर की आत्मा की शांति के लिए मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की। पुरानी यादों को विदाई दे वह पुनः अपने सुखी संसार में खो गई।


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