धरा सी स्त्री
धरा सी स्त्री
चले धरा धुरी पर लगातार
अथक चलती लावण्या
करती परिश्रम अपार
आखिर क्या है
उसकी तलाश।
नही जानती
पहुँचती वही फिर बारम्बार
क्षितिज भरमाता
देता आंसुओं की बौछार।
इन्द्रधनुष का पहनाता गलहार
सुर्ख चूनर उढ़ाता हर शाम
सागर समेट लेता अंक में
लहरों का कैसा विन्यास।
तप्त सौंदर्य द्विगुणित
करता भास्कर
भ्रमर सा प्रलोभित
परिभ्रमित वलयित चाँद।
आल्हादित हो निहारती है
योगी से पिघलते निर्झर में
प्रतिबिंबित अचल अटल
सन्यासी से पर्वत में।
रुआं रुआं बादलों से
करती श्रृंगार
प्यार बांटती खुशियां देती
द्रुत समीरी सुगन्धित गति से
स्फटिक सा निभाती पारदर्शी
अपना वो पावन किरदार।।